गुरुवार, २९ सप्टेंबर, २०१६

EKATMA ARTHCHINTAN 3





दीनदयाल जी का एकात्म अर्थचिन्तन

-    डॉ. बजरंगलाल गुप्ता


 
अर्थदृष्टि एवं अर्थसंस्कृति
अर्थ एवं अर्थाजन के संबंध में क्या दृष्टिकोण रहे ? इस बारे में भी दीनदयाल जी ने बहुत गहराई से चिंतन किया था| उनका मानना है कि मनुष्य एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में धन का होना आवश्यक है | अनुभव यह है कि कई बार अर्थ के अभाव में व्यक्ति के मन में कुंठा, निराशा एवं आक्रोश पैदा हो जाता है और वह अनाचार, अत्याचार, चोरी- डकैती, लूट-खसोट एवं अन्य अनेक प्रकार के आर्थिक अपराधो में संग्लन हो जाता है| इसीलिए तो हमारे यहाँ कहा गया है कि ----

बुभुक्षित: किं न करोति पापम् , क्षीणा: नरा: निष्करूणा: भवन्ति|

(भूखा व्यक्ति कौनसा पाप नहीं करता; भूख से पीड़ित कमज़ोर व्यक्ति निर्दयी हो जाते हैं)| इस प्रकार से अर्थ के अभाव में भी धर्म (अर्थात समाज हित के भले काम) टिक नहीं पाता| अर्थ के अभाव के समान ही अर्थ का प्रभाव भी समाज के लिए घातक हो सकता है| अर्थ के प्रभाव से आशय है :

(i) अर्थ के कारण स्वयं अर्थ में अथवा उसके द्वारा प्राप्त पदार्थो एवं भोग विलास में आसक्ति उत्पन्न हो जाना - केवल पैसे कमाने या संचय करने की धुन लग जाना

(ii) अर्थ का ही समाज के प्रत्येक व्यवहार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मानदंड बन जाना ‘सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति’ की उक्ति के आधार पर ही दैनिक जीवन में व्यवहार प्रारंभ हो जाना| इससे लोगो के जीवन में धनपरायणता आ जाती है, परिणामस्वरुप प्रत्येक कार्य के लिए धन की अधिकाधिक आवश्यकता महसूस होने लगती हैं| अंततोगत्वा धन का प्रभाव प्रत्येक के जीवन में अर्थ का अभाव भी उत्पन कर देता है|

अत: अर्थ के अभाव एवं अर्थ के प्रभाव दोनों से बचना चाहिए| इसके लिए दीनदयाल जी ने अर्थायाम नाम से एक नई संकल्पना दी है| उनके अनुसार, “समाज से अर्थ के प्रभाव व अभाव दोनों को मिटाकर उसकी समुचित व्यवस्था करने को अर्थायाम कहा गया है”| एक अन्य दृष्टि से अर्थ के उत्पादन, वितरण व भोग में संतुलन को भी अर्थायाम कहा जा सकता है | जिस प्रकार से व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम का महत्त्व है, उसी प्रकार अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए अर्थायाम का महत्त्व है| इसके लिए शिक्षा, संस्कार, दैवीसम्पदयुक्त व्यक्तियों का निर्माण तथा अर्थव्यवस्था का उपयुक्त ढांचा सभी का सहारा लेना जरुरी होता है |23 दीनदयाल जी का मानना था कि अर्थव्यवस्था का निर्माण एवं संचालन मानवीय उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए| पश्चिमी अर्थव्यवस्था में (पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों में) मौद्रिक मूल्य एवं धनार्जन को ही अत्यंत महत्त्व का स्थान प्राप्त है इसीलिए उनका नीतिगत नारा है, “कमाने वाला खायेगा ” दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं की दृष्टि तो समान है, अंतर केवल राष्ट्रीय आय वितरण में प्राप्त हिस्से को लेकर है साम्यवादी अर्थव्यवस्था के अनुसार उत्पादन में मुख्य भूमिका श्रम की होती है, अत: देश के कुल उत्पादन व उपभोग में मुख्य हिस्सा भी श्रमिकों को ही मिलना चाहिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका पूँजी व उद्यम की होती है, अत: देश के कुल उत्पादन व उपभोग में मुख्य हिस्सा पूँजीपति व उद्यमी को मिलना चाहिए| किन्तु ये दोनों विचार आधे-अधूरे एवं अमानवीय है| अत: भारतीय चिंतन ने मानवीय दृष्टिकोण से अपने लिए जो दिशा-सूत्र (नारे) निश्चित किए हैं, वे हैं- ‘कमाने वाला खिलायेगा’ तथा “जो जन्मा सो खायेगा”| इसका अर्थ है कि कमाने वाला परिवार में बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज, अतिथि आदि सब के भरण-पोषण की चिंता करेगा और देश में अभावग्रस्त, निर्धन-निर्बल व्यक्ति के निर्वाह का भी समाज का दायित्त्व होगा, इसी में से आगे चलकर ‘अन्त्योदय’ के लिए आर्थिक नीति बनाने की दिशा सामने आयी| और अधिक विचार करने पर यह भी ध्यान आया कि यदि कमाने वाला खिलायेगा और जन्मा सो खायेगा, इतना ही कहकर छोड़ दिया तो इससे मुफ्तखोरी और काम न करने की प्रवृति पनपने का खतरा हो सकता है, अत: इस नारे के साथ ‘खाने वाला कमाएगा’ भी जोड़ा गया| इस समूचे विचार को ध्यान में रखकर ही हमें भारत की अर्थरचना करनी होगी| इसी में से रोजगार-परक उत्पादन प्रणाली का ढांचा खड़ा होगा| दीनदयाल जी का कहना था कि हमें आर्थिक प्रश्नों पर विचार करते समय नैतिकता एवं आर्थिकेतर कारकों का भी विचार करना चाहिए|24

दीनदयाल जी ने अपनी दूरदृष्टि से इस बात को भी भली प्रकार समझ लिया था कि हमारी अर्थव्यवस्था का उद्देश्य असीम भोग नहीं संयमित उपभोग ही होना चाहिए | अब यह स्पष्ट हो चुका है कि आज हम उपभोक्तावाद पर आधारित उपभोग की जिस शैली एवं तौर-तरीकों को अपनाते जा रहे हैं उसका पर्यावरण एवं सामजिक दोनों ही दृष्टियों से लम्बे समय तक टिक पाना संभव नहीं लगता| इतना ही नहीं यह सबके लिए धारणक्षम मानव विकास की संभावनाओं को ही कमजोर किये जा रही हैं| यह इस विश्वास को इंगित करता है कि सीमित-संयमित धारणक्षम व्यवहारक्षम उपयोगशैली एवं जीवनशैली अपनाकर ही धारणक्षम मंगलकारी विकास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है| इसके अलावा, दीनदयाल जी का एक और महत्त्वपूर्ण दिशा-संकेत यह भी है कि समाज को सुखी एवं संतुष्ट रखना हो तो ग्राहकाभिमुख वितरण व्यवस्था और पर्याप्त मात्रा में वितरणाभिमुख उत्पादन होना चाहिए|25

दीनदयाल जी ‘द्रव्य आस्तिकता’ के दोष से अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक योजनाओं को बचाएं रखने पर जोर देते थे| ‘द्रव्य आस्तिकता’ से आशय है केवल अधिक पैसा खर्च करने से अधिक प्रगति होती है, यह विश्वास और उसी दृष्टि से किया जाने वाला द्रव्य का मापतौल|26

इतना ही नहीं, केन्ज का यह विचार है कि मंदी व बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकारी निवेश, खर्च में वृद्धि व घाटे का बजट बनना चाहिए, दीनदयाल जी को यह कतई मान्य नहीं था | उनका कहना था कि हमे यह भी देखना होगा कि सरकारी निवेश व खर्च किन कामों पर हो रहा है| इस दृष्टि से साध्य-साधन विवेक का भी ध्यान रखना होगा| वे एक ऐसी अर्थरचना के पक्षधर थे जिसमे कार्य की मूल प्रेरणा अनियंत्रित प्रतियोगिता अथवा लाभ की वृत्ति न होकर ‘कर्तव्य सुख’ हो| व्यक्ति को दिया जाने वाला पारिश्रमिक उसके द्वारा किए गए श्रम का प्रतिदान नहीं वरन् उसके योगक्षेम की व्यवस्था मानी जाए| इसके लिए अर्थचक्र को समाजशास्त्र एवं धर्मशास्त्र (नीतिशास्त्र) के अनुकूल नियोजित करना आवश्यक है| कुल मिलाकर, वे उपभोक्तावाद, स्पर्धावाद, वर्ग संघर्ष पर आधारित अर्थरचना को ठीक नहीं मानते| उनके अनुसार मनुष्य कि प्राकृत भावनाओं का संस्कार करके उसमें प्रकृति की मर्यादा के प्रकाश में अधिकाधिक उत्पादन, सामान वितरण एवं संयमित उपभोग की प्रवृति पैदा करना ही आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक कार्य है| वे देश व समाज को अर्थ विकृति से हटाकर अर्थ संस्कृति की दिशा में ले जाना चाहते थे| आज पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति या तो मात्र अर्थपरायण बनकर रह गया है या फिर अपने निजी व्यक्तित्व को नष्ट कर वह एक नंबर बनता जा रहा है| दूसरी ओर साम्यवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति की अपनी रूचि, प्रकृति, प्रवृति, प्रेरणा व पहल को समाप्त कर उसे जेल के एक कैदी के समान बना दिया गया है| इस प्रकार दोनों ही व्यवस्थाओं में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को खोता जा रहा है| अत: हमें ऐसी अर्थरचना बनानी होगी जिसमें व्यक्ति को गरिमापूर्ण स्थान मिले और वह पुरुषार्थशील बनकर राष्ट्र के सार्वजनीय मंगल में अपनी पूर्णक्षमता के साथ योगदान कर सके| अन्त में मैं दीनदयाल जी की आकांक्षा को उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत करना चाहता हूँ, “विश्व का ज्ञान और आज तक की अपनी सम्पूर्ण परंपरा के आधार पर हम ऐसा भारत निर्माण करेंगे जो हमारे पूर्वजो के भारत से अधिक गौरवशाली होगा| जिसमें जन्मा मानव अपने व्यक्तित्व का विकास करता हुआ सम्पूर्ण मानव ही नहीं अपितु सृष्टि के साथ एकात्म का साक्षात्कार कर ‘नर से नारायण’ बनने में समर्थ हो सकेगा|”27

EKATMA ARTHCHINTAN 2


दीनदयाल जी का एकात्म अर्थचिन्तन


-    डॉ. बजरंगलाल गुप्ता

न्यूनतम आवश्यकताएं
अधिक व्यावहारिक धरातल पर उतरते हुए दीनदयाल जी निर्देशित करते हैं कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था में न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की गारण्टी एवं व्यवस्था अवश्य रहनी चाहिए| न्यूनतम आवश्यकताओं में वे रोटी (संतुलित व पौष्टिक आहार), कपड़ा (ऋतु के अनुसार पर्याप्त मात्रा में), मकान (पीने का पानी एवं सेनिटेशन की सुविधाओं सहित) शिक्षा, स्वास्थ्य (समुचित चिकित्सा सुविधाओं समेत) एवं सुरक्षा को सम्मिलित करते है| शिक्षा के सम्बन्ध में दीनदयाल जी का मत था कि वह संस्कारप्रद तथा देश व समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए| उनके अनुसार देश के प्रत्येक बालक-बालिका को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देना समाज का दायित्त्व है| फ़ीस लेकर शिक्षा देना उन्हें मान्य नहीं, अत: शिक्षा नि:शुल्क होनी चाहिए| इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार पेड़ लगाने और सींचने के लिए हम पेड़ से पैसा नहीं लेते बल्कि उस काम में पूंजी लगाते हैं, उसी प्रकार शिक्षा भी एक प्रकार का विनियोजन ही है| इसी प्रकार चिकित्सा भी नि:शुल्क होनी चाहिए| शिक्षित एवं स्वस्थ व्यक्ति ही समाज के लिए अपनी पूर्ण क्षमता से अधिकतम योगदान दे सकता है| आज प्रश्न यह है कि दीनदयाल जी के इन विचारों को कैसे एवं कितनी मात्रा में व्यवहार में लागू किया जा सकता है| इस दिशा में पूरी गंभीरता से क्रियान्वयन की व्यापक योजना बननी चाहिए|8
सबको काम एवं रोज़गार
अब प्रश्न यह है कि इन न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक साधन-सामग्री तथा वस्तुएं व सेवाएँ कहाँ से और कैसे मिलेगी? यह तभी संभव
है जब देश के व्यक्ति पुरुषार्थ करे और सब सक्षम एवं स्वस्थ व्यक्ति को काम (रोजगार) मिले| दीनदयाल जी कहते हैं कि मानव को पेट और हाथ दोनों मिले हुए हैं| यदि हाथों को काम न मिले और पेट को खाना मिलता रहे तो भी मनुष्य  
सुखी नहीं रहेगा| अत: ‘प्रत्येक को कामअर्थव्यवस्था का आधारभूत लक्ष्य होना चाहिए|9 अर्थव्यवस्था में सब प्रकार की बेरोज़गारी – अल्प बेरोज़गारी, अदृश्य बेरोज़गारी, मौसमी बेरोज़गारी समाप्त होकर देश के प्रत्येक स्वस्थ व क्षमतावान
व्यक्ति को रोज़गार के अवसर उपलब्ध होने चहिए| दीनदयाल जी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “प्रत्येक को वोट जैसे राजनितिक प्रजातंत्र का निकष है वैसे ही प्रत्येक को काम” यह आर्थिक प्राजातंत्र का मापदंड है| इस संबंध में वे आगे कहते
है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा काम मिलना चहिए जिससे उसकी ठीक से जीविकोपार्जन हो सके, उसे अपना काम चुनने की स्वतंत्रता हो तथा उसे अपने काम के बदले नयायोचित पारिश्रमिक मिले| इसके लिए रोज़गार–केन्द्रित उत्पादन, निवेश एवं विकास–रणनीति बननी चाहिए|10 इस ‍‌प्रकार दीनदयाल जी का जोर पूर्ण
रोज़गार अथवा ‘हर हाथ को काम देने वाली अर्थव्यवस्था बनाने पर था|

उत्पादन तंत्र एवं दिशा



देश व समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति सतत विकास के लिए वस्तुओं व सेवाओं


का उत्पादन होते रहना चाहिए| उत्पादन की पद्धति, प्रक्रिया, दृष्टि व दिशा के


सम्बन्ध में दीनदयाल जी ने जो महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए है उनको जान लेना उपयोगी


रहेगा
(i) दीनदयाल जी के अनुसार पश्चिम का अर्थशास्त्र उपभोग की सतत वर्धमान आकांक्षा व लालसा को पूरा करने के लिए अमर्यादित उत्पादन वृद्धि पर जोर देता ह| इससे भी आगे बढ़कर पहले तरह-तरह की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है और फिर उसे खपाने के लिए इच्छाएं पैदा करना और बाजार तलाशने का काम  
किया जाता है| इसके लिए तमाम उत्तेजक, मांग परिवर्तक एवं प्रतियोगी - भ्रमात्मक (manipulative and competitive) विज्ञापनों, आकर्षक पैकेजिंग तथा बिक्री-संवर्धन के विभिन्न तौर-तरीकों का प्रयोग किया जाता है| इस सम्बन्ध में दीनदयाल जी ने एक मजेदार उदाहरण दिया है| अमेरिका में चाकू की बिक्री बढाने
के लिए चाकू के बेंटे का रंग आलू के छिलके जैसा रखकर छिलकों के साथ चाक़ू को फेंक देने तक का प्रयोग किया गया| इस प्रकार अब उपभोग के लिए उत्पादन से भी आगे बढ़कर उत्पादन के लिए उपभोग का अर्थशास्त्र चल पड़ा है, यह विनाशोन्मुख है| पुराना फेंको और नया खरीदों| नया खरीदने की चाह उपभोक्ता
में पैदा करना; मांग पूरी करना नहीं बल्कि मांग पैदा करना यही आज अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हो गया है| दीनदयाल जी के अनुसार यह घातक, विनाशोन्मुख एवं संसाधनों की फिजूलखर्ची करने वाला अर्थशास्त्र एवं अर्थव्यवस्था है| इसे बदलकर
आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति के लिए संसाधनों की मितव्ययी उत्पादन-प्रक्रिया को अपनाया जाना चाहिए|11  (ii) हमें उत्पादन में वृद्धि तो अवश्य करना है, पर ऐसा करते समय प्रकृति या प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादा को न भूले| इसका
अर्थ है कि हमें प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध प्रयोग कर प्रकृति के साथ उच्छंखलता करने वाली उत्पादन पद्धति व तकनोलोजी से बचना होगा तथा पुनरुत्पादनीय ऊर्जा स्त्रोतों के प्रयोग एवं पर्यावरण पोषक तकनोलोजी पर अधिक
ध्यान देना होगा| प्रकृति से हम उतना तथा इस प्रकार लें कि वह उस कमी को स्वयं 

 पुन: पूरित कर ले|
(III) दीनदयाल जी का आग्रह स्वदेशी, स्वावलंबी एवं विकेन्द्रित अर्थतन्त्र एवं
उत्पादन तन्त्र अपनाने पर था| वे विचार, व्यवस्थापन, पूंजी, उत्पादन-तन्त्र, प्रगति की दिशा, विकास प्रतिमान एवं उपभोगशैली के बारे में अत्यधिक विदेशी निर्भरता के विरुद्ध थे| वे स्वदेशी को प्रतिगामी एवं कालबाह्रय संकल्पना मानने वालों के
विचारों से कतई सहमत नहीं थे|12  उनका स्पष्ट मत था कि हमें अपना देश, अपनी परिस्थितियों के अनुकूल ही समाधान के मार्ग तलाशने होंगे| इस सम्बन्ध में उन्होंने संस्कृत के इस सुभाषित का उल्लेख किया है – ‘यद्देशस्य यो जन्तु:
तद्देशस्य तस्यौषधम्’ (जिस देश में जो पैदा होती है, वहीँ उस देश की औषधि है) |13  हमें इस प्रकार के अर्थतन्त्र एवं उत्पादन-तन्त्र की रचना करनी होगी जिसमें स्थानीय संसाधनों, स्थानीय कौशल और स्थानीय श्रम के आधार पर स्थानीय
आवश्यकताओं की अधिकाधिक पूर्ति की जा सके| हमें विदेशी पूंजी, विदेशी तकनोलोजी एवं विदेशी माल कम से कम और बहुत अनिवार्य होने पर ही प्रयोग करना चाहिए | अपना विकास अपने बलबूते करने की दिशा में ही आगे बढ़ना
चाहिए तभी हम स्वदेशी-स्वावलंबी अर्थतन्त्र खड़ा कर पायेंगे| यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या हम अपनी पुरानी तकनीक-तकनोलोजी, उत्पादन-पद्धति से ही चिपके रहकर विदेशी पूंजी एवं विदेशी तकनोलोजी को पूर्णतया नकार दे
अथवा अन्धानुकरण कर पूर्णतया स्वीकार करले ? इस सम्बन्ध में दीनदयाल जी ने एक व्यवहारिक मार्गदर्शन दिया है| उनके अनुसार जो अपना है, (अपनी पद्धति, कार्यशैली, तकनीक-तकनोलोजी, जीवनशैली आदि) उसे युगानुकूल बनाकर और
जो पराया विदेशी है (विदेशी पद्धति, तकनीक-तकनोलोजी आदि) उसे देशानुकूल
बनाकर अपनाना चाहिए| अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधो एवं व्यापार की दृष्टि से भी हम बंद अर्थव्यवस्था बनकर नहीं रह सकते और न ही हम अमीर देशों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के परावलम्बी बनकर उन्हें शोषण का अवसर दे सकते हैं| इसके लिए हमें समान धरातल पर विश्व के विभिन्न देशों के साथ परस्परावलम्बी आर्थिक
सम्बन्ध बनाने होंगे| दीनदयाल जी बड़ी-बड़ी उत्पादन इकाइयों एवं बड़े-बड़े उद्योगों के सहारे ही अर्थव्यवस्था चलाने के पक्षधर नहीं थे| इससे देश में केन्द्रीयकरण पनपता है जो विषमता और बेरोजगारी को बढाता है| अत: उनके अनुसार हमें व्यक्ति व परिवार आधारित, लघुयंत्राधिष्ठित आर्थिक विकेंद्रीकरण की प्रणाली विकसित
करने पर जोर देना चाहिए और श्रम प्रधान विकेन्द्रित ग्रामोद्योगों को सुदृढ़ करना चाहिए|14
हमें ऐसी उद्योग व्यवस्था कायम करनी है जो कृषि के साथ सुसम्बद्ध हो सके तथा कृषि से भार कम कर सके तो उसके लिए बड़े उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्योगों को प्राथमिकता देनी होगी| थोड़े लोगो तथा सरल औजारों के साथ छोटी-छोटी इकाइयाँ ही आज की परिस्थिति में हमारे लिए सर्वोत्तम है|15 

कृषि एवं उद्योग



दीनदयाल जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ के कृषि एवं उद्योग क्षेत्र के बारे 


में समय समय पर बहुत विस्तार से ( विशेषकर भारतीय अर्थनीति – विकास को   



एक दिशा में ) अपने विचार प्रकट किए हैं| वे कृषि क्षेत्र में प्रति एकड़ एवं प्रति


व्यक्ति निम्न उत्पादकता स्तर से बहुत चिंतित थे और दोनों दृष्टियों से उत्पादकता   

स्तर में वृद्धि करने के बारे में उन्होंने अनेक सुझाव दिए थे| उनका मानना था


कि कृषि विकास की दृष्टि से हमे प्राविधिक (technical) एवं संस्थागत 


(institutional) दोनों प्रकार के कार्यक्रम साथ-साथ चलाने होंगे, प्राविधिक दृष्टि   


से हमें आधुनिक कृषि तकनोलोजी का समुचित मूल्यांकन करते हुए भारतीय 



परस्थितियों के अनुरूप कृषि पद्धिति में सुधार करना  होगा| इस दृष्टि से भूमि


की उर्वरता को बनाएं रखने वाले खाद व बीज़, फ़सल की अदला-बदली, बुवाई व   


कटाई के तरीको, कृषि यंत्रों के प्रयोग, भूक्षरण को रोकने जैसी कई बातो पर विशेष

ध्यान देना होगा| दीनदयाल जी ने इस बात को भली भांति समझ लिया था कि


खेती की पैदावार में वृद्धि करने के लिए सिचाई सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन्पुट है| 


हमारे देश की खेती अधिकांशतया मॉनसून की कृपा पर निर्भर करती है जो   



अनियमित हैं और सब जगह और सब समय समान नहीं रहती| अत: उन्होंने 


अदेवमात्रिका कृषि’ की संकल्पना प्रस्तुत की जिसका अर्थ है कि हमे कृषि को


मॉनसून या इंद्र देव की कृपा पर ही नहीं छोड़ना चाहिए| इस दृष्टि से वे पर्याप्त   


मात्रा में छोटी सिचाई योजनाओं, कुओं, तालाबो, बावडियो एवं जलबन्ध (चैक डैम्स)

  
के विस्तार पर अधिक बल देने के पक्षधर थे| उनकी मंशा थी कि हम सिचाई कि


ऐसी व्यापक एवं पक्की व्यवस्था कर दे जिससे कि हर खेत को पानी पहुँचाया    


जा सके | संस्थागत कार्यों कि दृष्टि से भूस्वामित्व, भूमि के उपविभाजन एवं  


अपखंडन को रोक कर आर्थिक जोत बनाएं रखने, सहकारी खेती, विपणन, भण्डारण,
साख सुविधाओं, मूल्य निर्धारण की दृष्टि से भी समुचित व्यवस्थाएं करनी होगी|16 

                 दीनदयाल जी कृषि के साथ साथ औद्योगिक विकास के बारे


में भी पूर्ण सचेत थे| उनका मानना था कि बढती जनसंख्या का खेती पर से भार 


घटाने, कृषि में उत्पन कच्चे माल का उपयोग करने और कृषि को आवश्यक साधन   


सामग्री, यंत्र-औजार प्रदान करने, रोज़गार के अवसरों में वृद्धि करने, देश की निर्यात   

क्षमता बढ़ाने, स्वावलंबन आदि कई दृष्टियों से औद्योगीकरण अत्यंत आवश्यक 


है| किन्तु वे कुछ विशेष क्षेत्रो एवं विशेष वस्तुओं के उत्पादन को छोड़कर, शेष  


सबके लिए बड़े उद्योगों के स्थान पर श्रम प्रधान छोटे उद्योगों के अधिक पक्षधर  


थे | उनके अनुसार, ‘हमारे लिए उद्योगों की वही प्रणाली उपयुक्त है जिसमें हम  



कुटुम्ब के आधार पर काम को जीवन का अंग बना कर चल सके| इस में   



मालिक-मजदूर, उत्पादक-उपभोक्ता, आदि के सम्बन्धो का ठीक-ठीक निर्धारण हो 


सकेगा| हम इन संबंधों का नियमन पश्चिम के मूल्यों से नहीं कर सकते | देश
 

के व्यापक औद्योगीकरण में मानव संबंधों का निर्माण हमें अपने ही मूल्यों पर करना
होगा’|17 उद्योगों के क्षेत्र में भी दीनदयाल जी ने अपरमात्रिक उद्योग नीति’ 

की संकल्पना दी थी, इसका तात्पर्य स्वावलंबन से कुछ अधिक उत्पादन करने


वाली उद्योग नीति से है ताकि शेष बचे अतिरेक को निर्यात करके अपनी   


आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके| इस प्रकार दीनदयाल जी देश में ऐसा


औद्योगिक ढांचा बनाना चाहते थे जिसके द्वारा आवश्यक वस्तुओं के मामलें   



में देश स्वावलंबी बन सकें और अंतर-राष्ट्रीय गुणवता स्तर की वस्तुओं का 


निर्यात करके देश के लिए आवश्यक वस्तुओं का आयात करने की क्षमता  


निर्माण कर सके| प्रो० विश्वेश्वरैय्या को उद्धृत करते हुए दीनदयाल जी ने  


कहा था कि औद्योगिक नीति का विचार करते समय हमें सात बातों पर ध्यान देना 


चाहिए –  




(i)      मनुष्य (men)                  (ii) माल (material)

(iii)मुद्रा (money)                 (iv) मशीनरी (machinery)


(v)प्रबंध (management)           (vi) शक्ति (motive power) और

    
 (vii)बाज़ार (market) 





वास्तव में ये सातों परस्पर निर्भर एवं परस्परपूरक है| अत: इनके बीच योग्य संतुलन 
 बनाकर ही हम समुचित औद्योगिक विकास कर सकते है|18

 उनके अनुसार, हमे मनुष्य के उत्पादन स्वातंत्र्य पर आघात करने वाल

पूंजीवाद की तकनीकी प्रक्रिया को आँख बंद करके स्वीकार नहीं करना चाहिए| हमें


शिल्पकार एवं स्वनियोजित क्षेत्र को नष्ट करने वाला औद्योगीकरण भी नहीं चाहिए


उनके औद्योगीकरण के सिद्धांत को संक्षे में निम्नलिखित सूत्र से बताया जा


सकता है –        ज x क x य = इ



यहाँ, ज = जन, क = कर्म की व्यवस्था, य = यंत्र, इ = समाज का इच्छित संकल्प आधुनिक औद्योगीकरण में ‘य’ (यंत्र) सबको नियंत्रित करता है| हमें इसके स्थान पर ऐसी अर्थव्यवस्था निर्माण करना है जो ‘ज’ (जन) और ‘इ’ (समाज का इच्छित संकल्प) के नियंत्रण में ‘क’ (कर्म की व्यवस्था) और ‘य’ (यंत्र) का नियोजन करे| इसी क्रम में दीनदयाल जी ने उत्पादन में मशीन के प्रयोग एवं चयन के बारे में भी अपने विचार प्रकट किए है| वे कहते हैं “प्रोद्योगिकी का 
सम्बन्ध मशीन से हैं| हमे उनका चुनाव विचार पूर्वक करना पड़ेगा| हम अपने देश में उपलब्ध उत्पादन उपकरणों के साथ मेल खाने वाली मशीन का प्रयोग करे| श्रम और शक्ति, पूँजी और प्रबंध, माल और मांग ये सब मशीन के स्वरुप को निश्चित करने वाले होने चाहिए| ...... किन्तु आज कुछ ऐसा हो रहा है कि हम मशीन को ध्रुव मान
कर उसके अनुसार शेष सबको बदलने का विचार करते है| मशीन के लिए मनुष्य को बदलने पर विवश कर रहे है | सम्पूर्ण उत्पादन प्रणाली एक मशीन पर केन्द्रित हो गयी हैं| .... आज देश में जहाँ एक ओर मशीन के श्रद्धालु भक्त हैं तो दूसरी ओर कट्टर दुश्मन भी मौजूद है| .... वास्तव में मशीन न तो मनुष्य का शत्रु है न मित्र| वे एक साधन है तथा उसकी उपादेयता समाज की अनेक शक्तियों की
क्रिया-प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है|19 एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं, “मशीन देशकाल परिस्थिति निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष है| विज्ञान की आधुनिकतम प्रगति कि वह उपज है, किन्तु प्रतिनिधि नहीं| ज्ञान किसी देश-विदेश की बपौती नहीं, किन्तु उसका प्रयोग प्रत्येक देश अपनी परस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार करता

है| हमारी मशीन हमारी आवश्यताओं के अनुकूल ही चाहिए| वह हमारे सांस्कृतिक 


एवं राजनितिक जीवन मूल्यों की पोषक नहीं तो कम से कम अविरोधी अवश्य होनी 

 चाहिए”|20 मशीन और प्रौद्योगिकी के संबंध में इससे अधिक सटीक और 


व्यावहारिक चिंतन शायद ही कोई और हो सकता है|

 

             दीनदयाल जी के अनुसार आर्थिक विकास एवं औद्योगीकरण के लिए पूँजी का प्रश्न सर्वाधिक महत्व का है| पूँजी व बचत जुटाने के लिए साधारणतया दो मार्ग बताए जाते है – राष्ट्रीय आय के असमान वितरण द्वारा बचत क्षमता में वृद्धि करना; और विदेशो से पूँजी का आयात करना| पर ये दोनों ही ठीक नहीं हैं| देश के सामान्य व्यक्ति की बचत क्षमता बढ़ाने के लिए उसकी आय में वृद्धि

और उपभोग का संयम ही उचित मार्ग है|21 दीनदयाल जी का यह भी स्पष्ट मत 
था कि उद्योगों में पूँजीपति एवं बड़ी कंपनियों में शेयर होल्डर्स के साथ-साथ मजदूरों का भी स्वामित्व स्वीकार किया जाए और उन्हें लाभ एवं प्रबंध में भागीदार बनाया जायें|22 ऐसा करने पर हड़ताल-तालाबंदी की समस्या समाप्त होकर औद्योगिक

शान्ति स्थापित हो सकेगी, श्रमिक अपनी पूरी कार्य क्षमता से मन लगा कर 

 काम ‌‍‌करेगें और वितरण की समानता की दिशा में भी आगे बढ़ सकेंगे|