पर्यावरणीय अवधारणा का प्राचीन स्वरुप
ले. सुरेश भागवत
‘तुका म्हणे काही
l माझे तिळभरही
नाही ll
इस विवेचनमें जो त्रुटियाँ होगीं वे मेरी हैं,
जो ग्राह्य अंश होगा वह हमारी प्राचीन संस्कृती
को
संवारनेवाले महात्माओंका कृपा प्रसाद है l
वह कृपा प्रसाद संस्कृती
को सूझ-बूझ के साथ
अपनानेवालों को समर्पित है l
मनुष्य के चारों ओर फैले हुए अवकाशमें उपस्थित प्रत्येक
पदार्थ तथा तत्त्व
और प्रत्येक घटना के संबंधमें मनुष्यकी बुध्दि तथा
मनुष्यका मन अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ
देते हैं l बुध्दिकी प्रतिक्रिया
विचार के रूपमें
तथा ज्ञान-विज्ञान के
बोध के
रूपमें
होती है l मनकी प्रतिक्रिया भावना हैl
पर्यावणीय
अवधारणामें भी सृष्टि के विविध घटक तत्त्वों
का वैज्ञानिक बोध और उन घटक-तत्त्वों के संबंधमें मनुष्य की भावना ये
दोनो बातें होती हैं, होनी चाहिये l
दोनोंका अपना अलग- अलग महत्व है l वैज्ञानिक बोध मनुष्य का सृष्टिके घटक-तत्त्वों के साथ जो जीवनोपयोगिता का संबंध है उसका स्वरूप स्पष्ट करता है
l इन जीवनोपयोगी घटक-तत्त्वों के संबंधमें कृतज्ञता, आत्मीयता, गौरव आदी भावनाओंका
होना भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक है
l इन भावनाओं को
संजोकर रखना आवश्यक भी है, आखिर ये भावनाएँ
ही ‘संस्कृति’ का आशय है l
वेही
मनुष्यत्वकी पहचान हैं l ऐसी
उदात्त
भावनाओंके न होते हुए,
उँचे, विशाल भवनों का
निर्माण एवं चंद्र-मंगल जैसे दूरस्थ ग्रहगोलोंपर मनुष्यका पदार्पण ‘संस्कृति’ नहीं
हैl
1. पर्यावरणीय संबंध - सामाजिक
संबंध
बुद्धिनिष्ठ,
तर्ककठोर मानसिकता रखनेवाला व्यक्ति इस भावुकता की अवहेलना करेगा l
सृष्टिमें
उपस्थित प्राणहीन पदार्थों के
प्रति भावना रखना तथा अमूर्त तत्त्वों
के प्रति भावना रखना इ. बाते वह अंध-विश्वास के
समान मानेगा l
यहाँ आशयकी स्पष्टताके लिए सृष्टि के
साथ मनुष्य के संबंधों अर्थात पर्यावरणीय
संबंधोंकी तुलना करेंगे l
प्रत्येक
मनुष्य अन्योंसे नित्य-निरंतर कुछ वस्तु कुछ सेवा प्राप्त करता है
l प्राप्त वस्तु या सेवाके लिए वह कुछ सेवा या वस्तु
या धन अदा करता है l
ये लेन-देन के संबंध-व्यापार /वाणिज्य हैं
l परंतु ये संबंध सामाजिक संबंध नहीं कहलाते
l लेन-देनके संबंधों के साथ साथ जब न्याय-बंधुता-समता
आदी भावनाओं का
संबंध होता है तभी वे सामाजिक संबंध कहलाते है
l ठीक इसी प्रकार सृष्टिके प्रति कृतज्ञता, आत्मीयता का भाव जगेगा तब वे
पर्यावरणीय अवधारणासे पूर्ण संबंध कहलाएंगे
l सृष्टि की
उपयुक्तता का, अवश्यंभाविता का बोध
पर्यावरणीय जागरुकता का व्यवहार करने की
प्रेरणा नहीं जगाता l
वर्तमानमें
प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी जो भी विश्वव्यापी समस्याएँ हैं उन के निर्माणमें विश्वमें
विकसित कहलानेवाले राष्ट्रों की अधिकतम भूमिका रही है। आर्थिक-औद्योगिक विकास की तथा
उँचे रहन-सहन की जो भी अवधारणाएं इन राष्ट्रोंने
गत सौ-डेढसौ वर्षोमें चरितार्थ की उन्हीके परिणाम स्वरूप ये पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैंl
यह न अज्ञान-वश
हुआ, न ज्ञान-विज्ञान-तंत्रज्ञान के अभावमें हुआl
ये राष्ट्रही तो ज्ञान-विज्ञान-तंत्रज्ञानमें अग्रेसर थे व आज भी अग्रेसर
हैं l कदाचित विज्ञान-तंत्रज्ञानका अतिरिक्त प्रभाव व
दुष्प्रयोगही पर्यावरणीय समस्याओं की
मूलमें हैl
निकट
भूतकालके इस इतिहाससे यह तथ्य सामने आता है कि वैज्ञानिक जागरुकता होनेसे पर्यावरणकी
रक्षा करनेका भाव नहीं जगता है l
भविष्य की
समस्याओंका भय स्पष्ट दिखाई देता है तो भी मनुष्य स्वार्थ-वश, सत्ता-धन तथा सामर्थ्य के अहंकारमें भरकर अयोग्य नीति और व्यवहार को
अपनाता हैl स्वार्थ-अहंकार की संकुचित
भावना को परास्त करने में यदि
सुयोग्य विचार असमर्थ सिद्ध होता है तो कोई उदात्त भावना ही संकुचित भावना को
परास्त कर सकती है l
वह उदात्त
भावना है सृष्टि के
प्रति आत्मीयता, कृतज्ञता,
तथा गौरव l इन भावनाओंके अनुकूल
व्यवहारसे ही पर्यावरणकी रक्षा संभव है l
2. पर्यावरणीय अवधारणा के भावनिक अंग के आधार
पर्यावरणीय
अवधारणाके उपयुक्त भावनिक अंग के
व्यावहरिक तथा तात्विक
आधार उपलब्ध हैं l
इस संबंधमे निम्न लिखे तर्क दिये जा सकते
हैंl
बुध्दि,
विचारशीलता इ. विशेषताओंके बलपर मनुष्य अपने आपको सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानता है और
उर्वरित सृष्टि को
दास-भावसे, भोग्य-भावसे आंकता है l
उन विशेषताओं के
होते हुए
भी मनुष्य का जीवन स्वायत, स्वतंत्र, स्वयंभू नहीं है
l सृष्टि के
अंगभूत शक्तितत्वोंद्वारा
सारी
सृष्टि तथा तदंतर्गत
मनुष्य जीवन संचालित है l
सृष्टिसे प्राप्त पदार्थ ही मनुष्य जीवन का
उपादान कारण हैंl
उनके अभावमें जीवन सर्वथैव असंभव है l
सृष्टि-चक्रकी निरंतरता पर तथा जीवनोपयोगी पदार्थों की उपलब्धतापरही मनुष्य जाति का सातत्य निर्भर हैl
सृष्टिचक्र खंडित होतेही पदार्थीं की उपलब्धता तथा मनुष्यजीवन
समाप्त होगाl अर्थात स्वार्थ-साधना-हेतु क्यूं न हो परार्थसाधन आवश्यक है
l सृष्टिचक्र की
अंगभूत सभी गतिविधियाँ अबाध रखनाही नही – वे सुचारू पध्दतीसे चलती रहे ऐसे रचनात्मक,
विधायक प्रयत्न करना भी आवश्यक हैl
भावनिक अंग का यह व्यावहारिक आधार हैl
भावनिक
अंगका एक उदात्त
एवं
उदारबुध्दि तात्त्विक
आधार भी हैl सृष्टिमें विद्यमान सभी
सजीव-निर्जीव घटकोंको सृष्टिने अपने विकास क्रममें रचा, उनको विशिष्ट-विशिष्ट स्वभाव-धर्म
दिए जो सृष्टिके साथ-साथ निरंतर
विकसनशील हैं l
उनको सृष्टिचक्र के
संचालनमें विशिष्ट-विशिष्ट स्थान तथा दायित्व दियाl
उनका वह स्थान, वह स्वभाव, वह दायित्व उनसे छीन लेनेका अधिकार मनुष्य को किसने दिया है? अपने आपको
श्रेष्ठता बहाल करते हुए सृष्टि को
तथा उन सजीव-निर्जीवो को कनिष्ठ-दास-भोग्य भावसे आंकना
मनुष्यका औद्धत्य
हैl उनका स्थान, उनका स्वभाव,
उनका दायित्व आदिमें बाधा डालते हुए
विधाता का
विधि-विधान बदलनेका दु:साहस अन्यायपूर्ण हैl
आधुनिक मनुष्य सामाजिक व्यवहारमें यदि न्याय –बंधुता-समताके तत्त्वों का पक्षधर है तो इन तत्त्वों के उपायोजनका क्षितिज
विस्तृत करते हुए
संपूर्ण
मनुष्येतर सृष्टि भी न्याय-बंधुता-समता इन तत्त्वों के अनुकूल व्यवहार की परीधिमें समाविष्ट करना तत्त्वत: अतीव आवश्यक है, और मनुष्य जाति के लिए कल्याणकारक हैl
3. भारतीय अध्यात्म एवं पर्यावरणीय संबंध
श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान श्रीकृष्णने
‘आत्मवत्
सर्व भूतेषु, ’समत्वं सर्वभूतेषु’ इ. महान विचार रखे हैं
l इतनाही नहीं, आगे जाकर संपूर्ण अस्तित्व एक ही तत्त्व का दृश्य-श्राव्य प्रकटीकरण है-
अर्थात संपूर्ण सृष्टि एकात्म-एकजीव है यह भी घोषित कियाl
इस उद्घोषणाके माध्यमसे श्री.भ.गीताने मनुष्य को तथा संपूर्ण मनुष्येतर सृष्टि को सृष्टिचक्र की गतिविधिमें समकक्ष साँझेदार के नाते खडा कियाl
दो-चार दशक पहले, इस दृष्टिकोण को लेकर इस नामसे जो विचारप्रणाली रची गयी वही कुछ
हजार साल पहलेही श्री.भ.गीतामें तथा उसके पूर्व कालमें वेदोमें वर्णित है
l प्रत्यक्ष जीवनमें संपूर्ण सृष्टिके साथ
एकात्मताका व्यवहार करनेवाले महात्माको श्री.भ.गीताने ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ यह
अभिधान दिया है l
इस उच्च कोटिकी आध्यात्मिक क्षमताको निर्वाह करनेवाली व्यक्ति ‘सर्व जीवों के सुख-दु:ख- अपने सुख-दु:खके
समान अनुभव करता है’ l
(आत्मोपम्येन सर्वत्र समं पश्यति – सुखं वा यदि वा दुखं – गीता 6.32) श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवनमें ऐसे उदाहरण
उपलब्ध हैं-जहाँ मवेशियों के
पैरोंतले कुचले गये घासके
तिनकों की
वेदनाका आक्रंदन
श्री स्वामीके कंठसे मुखरित हुआl
इससे
स्पष्ट होता है कि एकात्मताका उच्च विचार केवल ग्रंथोंमें निबध्द नही रहा, उसको
चरितार्थ करनेकी आत्मिक क्षमता प्राप्त करनेकेलिए आवश्यक साधनामार्गोंकी रचना भी
प्राचीन ऋषियोंने
की थी l
इस
प्रकारकी उच्च कोटि की
आध्यात्मिक अवस्था एवं क्षमता प्राप्त करना सर्व साधारण व्यक्तिको असंभव नहीं
बल्की दुष्कर है यह समझते हुए
प्राचीन मनुष्योंने ऐसे प्रतिकात्म व्यवहारों की रचना की जिसके माध्यमसे
सर्वसाधारण व्यक्ति भी सृष्टिको, सृष्टिके अंगभूत घटक पदार्थों को -सजीव या निर्जीव- अपने जीवन के सच्चे साथीदार मित्र तथा जीवन की उपलब्धियाँ और सफलताएँ आदि का साँझेदार समझने लगा
l अगले पृष्ठोंमें हम ऐसे प्रतिकात्म व्यवहारों
के कुछ उदाहरणोंपर दृष्टिक्षेप करेंगे l
सृष्टि के सर्व सजीव-निर्जीव घटकोंके
अपने जीवन के
सच्चे साथीदार तथा अपनी उपलब्धियोंके साँझेदार समझनेका यह विचार मनुष्य जीवनकी
चिरंतन आवश्यकता है। वह एक महान
संस्कृति-तत्त्व है। उसमेही मनुष्यजाति का कल्याण भी निहित हैl
श्री.भ.गीताप्रणित इन विचारोंको आज तक हम केवल आध्यात्मिक, और आध्यात्मिक याने
ऐहिक जीवनमे व्यर्थ, समझते थे l
जिस प्रकार सूक्ष्म बीजमें विशाल वृक्ष समाहित होता है उसी प्रकार आध्यात्मिक
विचारों और मूल्यों में ऐहिक जीवनके विभिन्न पहलु समाहित होते हैं यह समझते हुए हम अध्यात्मका पर्यावरणीय आशय
ग्रहण करेंl उसके द्वारा पर्यावरणकी रक्षा करते हुए मनुष्य जीवनका कल्याण, मांगल्य
चिरस्थायी होगा l
4. भर्तृहरी का सुवचन
सृष्टि,
सृष्टिके अंगभूत जीवमात्र और मनुष्य के बीच जिस भावनिक बंध को ऊपरकी कुछ पंक्तियोंमें निवेदन किया गया उनके अनुकूल
व्यवहार करते हुए
नैसर्गिक जीवनसामग्री किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है इसका एक सुगम शब्दांकन
भर्तृहरीने नीतिशतक के
अंतर्गत एक सुवचनमें किया है l
वह कहता है,
राजन!
दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेनाम्l तेनाघ वत्समिव लोकममुं पुषाणl
तस्मिंशच
सम्यगनिशं परिपुष्यमाणेl नानाफलै:
फलति कल्पलतेव भूमि:ll
“हे
राजन l इस भूमातारुप गोमातासे
नैसर्गिक – संसाधनरुप गोरस को प्रचुर मात्रामें प्राप्त करना चाहते हो, तो सर्वप्रथम इस भूमाताके वत्स
के समान इस ‘लोक’ के सभी भूतोंका-सृष्टिके अंगभूत तत्त्वों का – यथा योग्य परिपालन कर
! जैसे-जैसे और जबतक यह वत्स पुष्टि प्राप्त करता रहेगा, तब तक और वैसे ही यह भूमाता, कल्पलता जिस प्रकार सभी इच्छाओं की पूर्ति करती है उसी प्रकार, अनेक
प्रकारसे तुम्हारी सभी कामनाओं की
पूर्ति
करती रहेगी l”
5 संत-वचन
जिस
प्रकार भर्तृहरीने अपनी इस रचनाकेद्वारा
सृष्टि की
एकात्मताका विचार प्रसृत किया उसी प्रकार भक्तिमार्गी संतोंने भी उसे लोकसंस्कृति की धारामें सम्मिलित करनेमें महत्वपूर्ण भूमिका
निर्वाह की l
‘आत्मौपम्येन
सर्वत्र समं पश्यति...’ इस श्री.भ.गीताके वचनका अनुवाद हम संत तुकारामके इन
शब्दोमें पाते हैं l
:- “तुका म्हणे जे जे भेटे, ते ते वाटे मी ऐसे” अर्थात “जो भी जीव दिखाई देता है,
वहाँ मैं अपने आपको ही देख रहा हूँ” l
जीवमात्रके सुख-दु:खकी सहवेदनाका वर्णन करते समय कबीर कहते हैं :
चाकी
चलती देखिकै, दिया कबीरा रोइl दोइ
पट भीतर आइकै, सालिम गया न कोइ ll
“जीवन
चक्र के दो पाटो में (मानो, भूमि और आकाश के बीच) सभी जीव पीसे जा रहे देखके कबीर
रो पडे- कोई भी बच नहीं पाया !”
देशके
कोने
– कोनेमें बसे भिन्न-भिन्नभाषिक भक्ति-मार्गी,
भागवत धर्मी संत महात्मा किसी न किसी पध्दतिसे
सृष्टि की
एकात्मताका यह विचार तथा जीवोंके साथ सहवेदनाका विचार अपनी रचनाओं के द्वारा प्रसृत करते आये हैं
l
6 दो उदाहरण – भिन्न भावना के भिन्न फल
मनुष्य
की योग्यायोग्य भावना व तदनुकूल व्यवहारके दो उदाहरणों की हम यहाँ समीक्षा करेंगे
l दोनो उदाहरण ब्रिटैन के पशुपालन के तथा दुग्धोत्पादन के
व्यवसायोंसे संबंधित हैं l
भारतीय
प्रसारमाध्यमोंद्वारा
दोनों के समाचार प्रकाशित हुए
थे l
एक
समाचार ‘मॅड काऊ’
नामके बीमारीसे संबंधित थाl
हर पशुसे ‘बीफ’ अधिक मात्रामें प्राप्त हो इस हेतु तृणाहारी गोवंशीय पशुओं को
अतिरिक्त प्रथिनों से युक्त भोजन देनेहेतु
अनैसर्गिक भोजन (सूखे मांसखंडका चूर्ण?) खिलाया गया था। इस अनैसर्गीक भोजन के कारण उनमे ‘मॅड
काऊ’
बीमारी फैल गयी। बीमार पशुओं का ‘बीफ’ खानेसे
मनुष्यों को भी यह बीमारी हो सकती है इस
संभावना को देखते ही हजारों गाय-बैलों
की हत्या कर दी गई थी। अधिकाधिक लाभ कमाने का भूत उन पशुपालकों
पर सवार था, तो
निसर्गविरोधी भोजन का दुस्साहस करते समय दोबारा सोचने की सूध भी नहीं रही। पशु कोई जीव नहीं मानो अधिकाधिक
डॉलर्स/पाउंड्स
कमाने के
यंत्र की तरह आंके गए
थे।
दूसरा उदाहरण
दुग्धव्यवसायसे संबंधित है l पशुवैद्यकों व्दारा किये निरीक्षण के ऐसे निष्कर्ष थे कि
दोहन-योग्य गायोंको दोहते समय, खिलाते समय, नहलाते समय ... हर संपर्क के समय, किसी
निश्चित नामसे पुकारकर, मनुष्योंसे होता है वैसे, भावनापूर्ण व्यवहार करें तो दूधकी
मात्रा बढती है l पशुओंसे, सभी जीवोंसे भावनापूर्ण व्यवहार करनेका पक्ष
प्रारंभसे हमारे यहाँ रखा गया है उसकी सार्थकताही इस समाचारसे स्पष्ट होती है
l भारतमें तो कई शतकोंसे यह
व्यवहार होते आया है l
इन दोनो उदाहरणोंसे सृष्टिके संबंधमें योग्यायोग्य भावना,
तदनुकूल किया व्यवहार और व्यवहारके सुपरिणाम या दुष्परिणाम स्पष्ट दिखाई देते हैं
l
7 एकात्मता -
जीवनव्यापी विचार
सृष्टीकी एकात्मता, जीवमात्रोंके बीच समत्व आदि विचार
पारलौकिक विचार नहीं हैं l वे व्यापक जीवन-विचार हैं
l मनुष्य-जीवनके सभी पहलुओं को
एक साथ समेटकर, संपूर्णता के साथ देखकर उनमें
सभी पहलुओं कल्याणप्रद व मंगल
सामंजस्य निर्माण करनेवाले ये विचार हैंl मनुष्य के सम्मुख जो सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, पर्यावरणीय, नैतिकतासे
संबंधित तथा अन्य कई समस्याएँ हैं उन समस्याओं का निराकरण करने की क्षमता रखनेवाले
ये विचार हैंl यदि हम हमारा दैनंदिन व्यवहार एकत्व, समत्व के कसौटीपर खरा
सिध्द करें तो सभी समस्याओंका निराकरण संभव है
l
8 हेतुपूर्ण
सांस्कृतिक संरचना
एकत्व और समत्व के मूल्योंपर अधिष्ठित दैनंदिन व्यवहार करने
की ओर जनसाधारण की प्रवृत्ति हो, ये मूल्य व्यक्ति-व्यक्ति का स्वभाव बने इसहेतु
प्राचीन विचारकोंने सांस्कृतिक संरचना का विकास किया l पर्यावरणीय भावना जगे और व्यवहारमें प्रकट हो इसहेतु कई
सांस्कृतिक संकल्पनाओं, प्रतीकात्म व्यवहारों की रचना की गयीl निसर्ग के विविध शक्ति-तत्त्व, सृष्टिके सजीव-निर्जीव घटक,
मनुष्यनिर्मित वस्तु, मनुष्यनिर्मित अभि-कल्पनाएँ आदि सब ‘मनुष्यके समान और मनुष्य
के समकक्ष जीवमान अस्तित्व’ माने गये l यथासंभव उनसे नाता भी जोडा गया
l भूमि यदि माता है, वहाँ
भारतके हर बालकके लिए चंद्र का ग्रहगोल मामा है, नदी लोकमाता है, अग्नि-वरुण
(पर्जन्य) आदि तत्त्व लोक–पाल (क) हैंl पर्यावरणीय अवधारणाका संपूर्ण सांस्कृतिक अंग मानो क्रमश:
विकसित हुआl
पर्यावरणीय संस्कृतिकी ही मानो रचना हुई l
जो प्रतीकात्म व्यवहार थे, आज भी बचे-खुचे भ्रष्ट रुपमें
विद्यमान हैं, उनका कर्मकांड के नाते मूल्य तुलनामें कम हैं, परंतु उसमें निहित
भाव-विश्व अमोल है, रक्षणीय हैl व्यवहारों की कालसापेक्ष पुनर्रचना हो सकती है, होनी चाहिएl
9.
पर्यावरणीय सांस्कृतिक संकल्पनाएँ
सृष्टि के संबंधमें आत्मीयताका भाव जगें इसहेतु जो
सांस्कृतिक संकल्पनाओं का निर्माण हुआ उनमेसे कुछ संकल्पनाओं का संक्षेपमें परिचय
हम यहाँ प्राप्त करेंगेl यह स्मरण रखना आवश्यक है कि सृष्टि तथा सृष्टि के सभी घटक
तत्त्वों को हमारी संस्कृति में जीवमान तथा दिव्य रूपमें – personified and / or deified - देखा गया है l भारतीय समाजके विशेष मनोविज्ञान तथा चिति के
परिप्रेक्ष्यमें भाव-जागरण का यही मार्ग योग्य है l इसे अंधविश्वास कहना आसान है, परंतु समष्टि तथा सृष्टि के
प्रति दायित्व तथा एकत्व की भावना जगानेहेतु कोई भी पर्याय के निर्माण में निरे तर्कवादी
सफल नहीं हुएँ हैं l इसलिए उपादेयता के दृष्टि को रखकर इन संकल्पनाओं का
स्वीकार आवश्यक हैl तत्वज्ञानकी दृष्टिसे इनकी महत्ता का विवेचन पूर्वमें दिया
है l
संकल्पनाओं के विषयको आधार बनाते हुए यहाँ उनके पाँच वर्ग किये हैं l
परंपरामें इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं है l
समझनेमें तथा स्मरण रखनेमें सुविधा हो इस दृष्टिसे वर्गीकरण का यह प्रस्ताव है l
वर्गीकरण में कोई भी श्रेष्ठ-कनिष्ठ भाव रखना अयोग्य है l
वर्गीकरण
:- (1) भूमि,
नदी इ. भौतिक सृष्टितत्वों के
संबंधमें संकल्पना,
(2) इंद्र, अग्नि, इ. अमूर्त सृष्टितत्वों के संबंधमें संकल्पना,
(3) वृक्ष, पशु-पक्षियों की प्रजातियों के संबंधमें संकल्पना,
(4) मनुष्यनिर्मित कल्पनाओं के संबंधमें संकल्पना,
(5) मनुष्यनिर्मित वस्तुओं के संबंधमें संकल्पना,
प्रत्येक
वर्ग के
दो या तीन उदाहरणोंका विचारही यहाँ संभव है
l प्रत्येक वर्ग की संपूर्ण तालिका न संभव है, न यहाँ आवश्यक है
l
10 संकल्पनाओंकी विशेषताएँ
इन
संकल्पनाओं की
एक विशेषता ठीक समझना और स्मरणमें रखना आवश्यक हैl
ऐसी सांस्कृतिक अवधारणाएँ यकायक निर्माण करना असंभव है, न किसी सभा में प्रस्ताव
पारित करनेसे इनका निर्माण होता है l
कोई महात्मा न ऐसे निर्देश देता है- जिसको संपूर्ण समाज निरपवाद अपनाता है
l किसी बीज से यथावकाश छोटा पौधा बनता है और वर्षों के पश्चात
विशाल वृक्ष बनता है, उसी प्रकार किसी भाव-संपन्न मनमें संकल्पनाका बीज बोते हुए और नियमित सश्रध्द व्यवहारसें
उसे सींचते हुएही
ऐसी संकल्पनाएँ दृढमूल होती हैंl
उनमें देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष परिवर्तन होते रहते हैं – समाजके धुरीणोंका वह
दायित्व है l दूसरी विशेषता है – अभिजन संस्कृति का रुप और लोकसंस्कृति का रुप भिन्न हों तो भी भाव-जागरण
की दृष्टि को रखकर दोनो समकक्ष है, उनमे श्रेष्ठ-कनिष्ठ भाव अयोग्य है
l
विभूति-योग
संकल्पनाओंके
इस वर्गीकरणसे और एक विशेषता उजागर होती है कि भारतीय समाज के व्यापक भाव-विश्वमें मनुष्य के चारो ओर विद्यमान हर प्रकारके पदार्थ,
हर प्रकार का तत्त्व
समाविष्ट है l इस पृष्ठभूमिमें यहाँ
श्री. भ. गीता का दशम अध्याय-“विभूति-योग” का स्मरण आवश्यक है
l अपनी विभूतियोंको गिनाते समय भगवान श्रीकृष्ण ने
(1) स्थावरोमें हिमालय, स्त्रोतोंमें भागीरथी – भौतिक, र्नेसर्गिक
तत्त्व
(2) वसुओमें अग्नि, प्रजनयिता कंदर्प – अमूर्त र्नेसर्गिक
तत्त्व
(3) वृक्षोंमें अश्वत्थ, पशुओंमें सिंह, पक्षियोंमे गरुड – सजीव
(4) ‘मार्गशीर्ष’ मास, व्याकरणमें ‘द्वंद्व समास’, छंदोंमें ‘गायत्री’ –
मनुष्यनिर्मित
कल्पनाएँ
(5) बुध्दि, ज्ञान, जागृति इ. मनुष्यकी क्षमताएँ तथा अहिंसा,
समता, क्षमा, यशापयश
इ.
मनुष्यकी भावनाएँ
इन
सबको सम्मिलित किया है l
ये सब ईश्र्वरकी विभूतियाँ है ऐसा पक्ष उन्होने रखा।
पर्यावरणीय
सांस्कृतिक संकल्पनाओंका भाव-विश्व
इतना व्यापक क्यूं रखा गया यह समझना आवश्यक है l
मनुष्य का भाव-विश्व
जितना व्यापक होगा, आत्मीय जनों की
तालिका जितनी लंबी – अधिकाधिक पदार्थों को,
तत्त्वों को
मिलाकर होगी – उतना अधिक उन्नत मन उसे प्राप्त होता है, उतना स्वार्थ अहंकार से ऊपर उठ कर समष्टि-सृष्टि से समरस
होने की
अधिक क्षमता उसे प्राप्त होती है, उतनी अधिक व्यापक और अधिक गंभीर दायित्वकी भावना
जगती हैl इस महत्वोंको अधोरेखित करते हुए स्मरणमें रखना अतीव आवश्यक हैl
वर्तमानमें
व्यक्ति को
इन भव्योदात्त
कल्पनाओं के सम्मुख खडा कर उनका परिचय प्राप्त कराने की कोई भी व्यवस्था शिक्षा,
कला-संस्कृति में नहीं है l
इसके परिणाम स्वरुप
व्यक्ति स्वार्थ- अहंकारमें भरकर अनुचित व्यवहार करता है l
11 पर्यावरणीय संकल्पनाओंके
उदाहरण : (1) भौतिक नैसर्गिक तत्व.
[1]भूमिः
दो प्रसिद्ध उक्तियाँ हमारी
भूमिविषयक भावना दर्शाती हैं।
1.
“माता भूमि:, पुत्रोsहम् पृथिव्या:” – भूमि मेरी माता है,
मैं भूमि का
पुत्र हूँl
2.’समुद्रवसने
देवी पर्वतस्तनमण्डलेl
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व
मेll
जिसके सागर रुप वस्त्र हैं और पर्वतरुप
स्तनमण्डल हैं, ऐसे
देवी विष्णुपत्नि!
(भूमे) मैं तुझे नमन करता हूँl
मेरे पैरोंको तुझे स्पर्श होता है – मुझे क्षमा करl
सुबह
उठते ही भूमिपर
पैर रखने के
पूर्व भूमि को
वंदन करनेकी प्राचीन पध्दति हैl कृषक
समाज के
लिए तो भूमि
अन्नदात्री माता है,.......
...परंतु
यह केवल उथली, शाब्दिक भावना नहीं है l
भूमि को
जीवमान स्त्री मानतेही, स्त्री के जीवनमें अवश्यंभावी ‘रजस्वलावस्था’ का काल भूमि को भी प्राप्त है यह मानना आवश्यक
थाl इस कल्पनासे एक
प्रतीकात्म धार्मिक व्यवहार का निर्माण हुआl
खेतमें जब कोई भी धान-कटहल इ. नहीं है – ऐसे कालमें – भूमिकी तीन दिनकी
‘रजस्वलावस्था’
मानी गयी है l
इन तीन दिनोंमें
खेतमें कुछ भी काम नहीं होता हैl
चौथे दिन कुछ् कंकड-पत्थर इकठ्ठा रखकर, उनपर फूल आदी चढाकर पूजा की जाती हैl
पूजा के पश्चात भूमि
ऋतुस्नात, शुध्द हुई है कहकर हल चलाने जैसे कार्य
प्रारंभ होते हैंl
भिन्न-भिन्न प्रदेशोंमें
भिन्न नक्षत्रोंके समय पर यह पूजा होती हैl
सर्वसाधारणतया इस पूजाविधी को ‘अंबुवाची’ उत्सव कहा जाता हैl
केरलके कुछ जिलोमें वह ‘उछारल’ हैl
आसाम में कामाख्या देवी भी अंबुअवाची उत्सव में ‘रजस्वला’ मानी जाती हैl
तीन दिन मंदिर बंद रहता हैl
चौथे दिन देवी ऋतुस्नात होती है, मंदिर खुलता है, मेला भी लगता हैl
भूमि,
देवी की मूर्ति दोनों जीवमान है ऐसी यह भावना हैl
“आत्मौपम्येन समं पश्यति”!
भूमिके
संबधमें और कुछ प्रतीकात्म व्यवहार हैं l
अश्विन
वद्य
त्रयोदशी, या माघ शुध्द सप्तमी – रथसप्तमी – ऐसे दिनोंपर भू-माता और सूर्य, या भू-माता
और आकाश का विवाह –विधी करने की
भी पध्दति
है l एक
विशेष श्रद्धा के
अनुसार भूमाता अर्धप्रसूत गोमाता के समान है
l अर्ध-प्रसूत गाय याने गायका बछडा योनी-मार्ग से
आधा बाहर आया है, आधा अंदर ही है l
ऐसी गाय भूमि के
वत्स याने पैड-पौधे आधे भूमि के
बाहर और आधे [-जडें-] भूमिमें छिपे रहते हैं
l यह उनमें साद्द्श्य है l
अंबुवाची, विवाह, अर्ध-प्रसूतता की कल्पना आदिमें जो भाव-सौंदर्य है, जीवमानता
का जो भाव
है वह मुग्ध करता है l
वर्तमानमें
ये भावनाएं लुप्तप्राय हैंl
कृषक उपजाऊ मिट्टी ईंट भट्टि के ठेकेदारों को बेचता है, रासायनिक खादोंसे मिट्टी
की उर्वरा शक्ति
नष्ट करता हैl
इस कारणसेही प्राचीन अवधारणाका स्मरण आवश्यक हैl
भूमि के प्रति मातृभावना जीती-जागती
भावना थी इसके और भी कुछ संकेत प्राप्त होते हैंl
विद्वानोंने
कहा है कि वैदिक काल मे तथा ब्राह्मण ग्रंथोंके काल तक भूमि की बिक्री नही होती थी, किसी को भेंट भी नही दी जाती
थीl राजा भी यह नही करता थाl
कल्प-सूत्र-ग्रंथों के
काल में इस नीतिमें शिथिलता आकर विक्रय आदि
प्रारंभ हुआl इस बातका एक ही कारण हो
सकता है “माता” का न विक्रय हो सकता है, न वह ‘भेंट’ दी जा सकती हैl
अर्थात भावना के
अनुकूलही व्यवहार थाl
भूमि के स्वामित्व के भी तीन प्रकार थेl
एक व्यक्तिगत स्वामित्व, दूसरा सार्वजनिक स्वामित्व- जैसे गाय-मवेशियोंके लिए
सुरक्षित सार्वजनिक चराउ भूमि ‘चरागाह’l
भूमि का
तिसरा प्रकार था – ऐसी भूमी जिसपर किसीका स्वामित्व नहीं था
l
“अटवी
पर्वताश्चैव
नद्यस्तीर्थानि यानिचl
सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्नास्ति तत्र परिग्रह:ll
“जंगल,
पर्वत, नदियाँ, तीर्थ इ. स्थानोंपर किसीका स्वामित्व नहीं होता है ऐसा (पूर्वजोंने)
कहा है, अत: वहाँ कोई कर लागू नहीं हैl”
भूमि का
स्वामी नही था, परंतु ‘भूमी मेरी स्वामी’ है ऐसे कहने वाली वन्यजातियाँ थींl
वन्य समाजोंके लिए वन-भूमी उनकी माता भी थी और स्वामी भी थीl
वन्य समाज वन-भूमीके सेवक थेl
वन-संपत्ति,
वन्य पशू इ. का संवर्धन, संरक्षण उनका स्वयं स्वीकृत स्वाभाविक दायित्व था – और
उनके निर्वाहका
साधन भी थाl
वाल्मिकी रामायण में ‘गुह’ के अधीन
जो निषादोंका ज्ञाति-राज्य
था उसके वर्णनमें इसका एक आधार प्राप्त हो सकता हैl
दूसरा आधार है – वसिष्ठकी कामधेनु का विश्वामित्र ने बलपूर्वक अपहरण करनेका प्रयास
किया वह कथाl कामधेनु कोई गाय नहीं
बल्कि वसिष्ठ के आश्रम के चारों ओरकी वन-संपत्ति है
l उसकी रक्षाके लिए कामधेनुके शरीरसे अनेक सैनिक
निकलकर आए ऐसा कथा में – महाभारतमें तथा रामायणमें – कहा गया है
l ये सैनिक किरात, शबर इ. वन्य समाजोंके थे ऐसा
स्पष्ट उल्लेख दोनो महाकाव्योमें हैl
अर्थात भूमि
किसीके स्वामित्वमें नही थी बल्कि
भूमि को
माता तथा स्वामी माननेवाले पुत्र-तथा-सेवक वन्य समाज थेl
[2]
नदियाँ:
नदियोंको
‘लोकमाता’ कहा गया है l
महर्षी
व्यास ‘विश्वस्य मातर:’ इन शब्दोमें अपना भाव वर्णन करते हैंl
स्थानिक समाज गंगामैय्या, नर्मदामाता, कृष्णामाई ऐसे संबोधन करते हैंl
नदी के जल से कृषि
करनेवाले प्रदेश और समाज नदि-मातृक कहे गये हैं
l ‘किस गाँव से हो’ पूछा जाता हैl
उस तरह किस नदी के
(पुत्र) हो? पूछनेकी पध्दती थीl
नदियोंकी पवित्रता, पूज्यता
नदीका
उगमस्थान, साधुओंका कुल इनकी खोज-बिन व्यर्थ है, करनी नहीं चाहिए इस अर्थ की
कहावतें कई भाषाओमें होंगीl
फिर भी नदियों के
उगमस्थान प्राचीन समयसेही निश्चित हैंl
वहाँपर उगम का निश्चित स्त्रोत बतानेवाले गोमुख हैं, पवित्र कुंड है, नदियोंकी मूर्ति रखकर मंदिर हैं तथा शिवजी के
मंदिर भी हैंl
ये सभी पवित्र तीर्थ माने गये हैंl
नदियोंपर वैदिक सूक्त
हैंl महात्माओंने स्तवन रचे
हैं – आदि शंकराचार्य का ‘नर्मदाष्टक’, पंडितराज जगन्नाथ का ‘गंगालहरी’ प्रसिध्द
हैl लोकसंस्कृतिमें नदियों के स्तवन-अर्चनपर गीत हैं,
आरतियाँ है, महाराष्ट्रमें चक्कीसे पीसते समय गानेके लिए ओवियाँ भी हैंl
अन्य संकेत – प्रतिकात्म व्यवहार
मूर्तिशास्त्रमें हर देवताका स्वरुप
निश्चित है, उसी प्रकार गंगानदीका स्वरूप
भी हैl नदियों के देह की कल्पना करके-उनके नाभिस्थान
पंरपरामें निश्चित हैंl
नर्मदाकी नाभी नेमावरमें (मध्य प्रदेश), कृष्णाकी नाभी कुरुगड्डीमें (आंध्र) है
l नदीके प्रवाहमें नाभीका निश्चित स्थान, वहाँ शिवलिंग
या शिवजीका मंदिर होता हैl
जिस प्रकार भूमाता वर्षमें एक बार ‘रजस्वला’ होती है – लोकमाता नदियाँ भी श्रावण
मासमें ‘रजस्वला’ हैl
सभी नदियाँ एक दुसरीकी बहने
हैं या सखियाँ हैं l
उनके पुत्र-भक्त विशेष पर्व पर उनका परस्पर-मिलन करवाते हैंl
गंगा व कृष्णा का मिलन ‘कन्यागत’ पर्व पर होता हैl
नदियोंके जन्मदिन निश्चित हैंl
नर्मदा का जन्म रथसप्तमी, तापीका जन्म आषाढ शुध्द सप्तमी, गंगावतरण ज्येष्ठ शुध्द
दशमी – परंपरामें निश्चित हैंl
पुत्र माता को
वस्त्र भी देते हैं – रथसप्तमीको नर्मदाको चुनरी दी जाती हैl
महाराष्ट्रमें साडीयाँ जोड-जोडकर नदीके प्रवाह / पाट की चौडाई जितनी लंबी करके
विधिपूर्वक दान की जाती है l
पौराणिक तथा ऐतिहासिक माहात्म्य
महाभारतमें
आजके अफगाणिस्तानकी सुवास्तु– आसामकी लौहित्य- और ओडिसा की ऋषिकुल्या - पश्चिममें
बनास और दक्षिणमें तुंगभद्रा – इतने विस्तृत प्रदेश के एकसौं साठ नदियोंकी नामावली है
ऐसी जानकारी संस्कृति कोशमें उपलब्ध हैl
कथाओंमे नदियोंके चरित्र-पुराणोंने
गाये हैं l किसी राजाके राज्याभिषेक के समय सभी नदियोंका – समुद्रोंका
जल अभिषेक के लिए लाया जाता थाl
उस नदी के
पुत्ररुप समाज की
राज्याभिषेक में सहमतीका वह निदर्शक माना जाता थाl
इस
प्रकार के वर्णनों की कोई सीमा नहीं हैं, फिर भी आज का
वास्तव लज्जास्पद हैl
सभी नदियाँ गंदे नाले बनकर बह रही हैंl
भूमि और नदी का जो मनुष्य-जीवन में तथा
मानव-संस्कृति के विकासमें महत्वपूर्ण स्थान है उस निमित्त यहाँ दोनों का थोडे विस्तारसे विवेचन किया हैl
12 पर्यावरणीय संकल्पनाओं के उदाहरण. (2) अमूर्त नैसर्गिक तत्त्व
भूमि, नदी इ. भौतिक तत्त्वों को मानवीय रूपमें देखकर मातृत्व का नाता जोडा
गया थाl निसर्ग के अनेक तत्त्व अमूर्त हैं, दिखाई नहीं देते, बल्कि वे अमानवीय और भयप्रद शक्तिसे
युक्त हैंl ये शक्ति-तत्त्व कभी उपकारक, तो कभी विनाशकारी
सिध्द होते हैंl
इसलिए ऐसे शक्ति-तत्त्वों को
देव-देवता के रूपमें
देखकर उनकी शक्ति उपकारक ही रहे ऐसे प्रार्थनीय और पूजनीय व्यवहार के वे पात्र रहेl
[1]
इंद्र: इंद्र
बहुत प्राचीन देवता है, जो वर्तमानमें आराध्य नहीं रहीl
इंद्र – देवता की संकल्पना बदलती रही है
ऐसा अभ्यासक हमे बताते हैंl
वह स्वाभाविक हैl
विद्युत, अग्नि, पर्जन्य आदी निसर्ग-तत्त्वों
का निश्चित स्वरुप है वैसा निश्चित परिणाम-स्वरुप दर्शन इंद्रका नहीं हैl
फिर भी इंद्र देवों
का राजा माना गया है, लोकपाल(क) माना गया हैl
ऋग्वेदीय सूक्तोंमें उसके कार्य का वर्णन इस प्रकार है - उदक
निर्माता, पर्वत-जल-दाता, वृक्षवर्धक, समुद्रगामी जलोंका–नदियोंका अधिपति–नदियोंके मार्ग सिध्द करनेवाला,
सूर्य के रथ के चक्र झेलनेकी प्रेरणा आकाश को
देनेवाला! जनसाधारणकी श्रध्दाएँ
इस वर्णन के
अनुकूल थी, आज भी कुछ हैंl
उदा. अवर्षणका भय उपस्थित होते ही इंद्र की,
इंद्र की
कन्या का स्तवन होता है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि – पुराणोंमें
इंद्रपुत्र जयंत है, कन्या का
संकेत तक नहीं हैl
जयंत एक विशेष जाति का
मूल पुरुष माना गया है जो जाति सौ-डेढ
सौ साल पूर्व तक तालाब-नहरों की योजना बनवाना, खुदाई करवाना आदि कार्य कुशलतापूर्वक करती थीl
वाल्मिकी रामायणमें
शरभंग तथा सुतीक्ष्ण
मुनि के
रमणीय तथा समृध्द तपोवनमें उनसे मिलने आये इंद्र का वर्णन हैl
उसका तेजस्वी रथ, वनमें भूमिसे
ऊपर
उठकर तैरता हुआ बताया हैl
पूरे वर्णन से लगता है – आज की परिभाषामें इंद्र मानो पर्यावरणीयदेवता थीl
[2]
वनदेवताओंकी विविध संकल्पनाएं
थीl ‘अरण्यानी’ इस नामकी कोई
वैदिक देवता थीl
वन्यपशुओंके जीवन का आधार होनेके नाते अरण्योंको उसी नामसे देवता स्वरुप प्राप्त
हुआ होगाl ‘अरण्य’ शब्द का अर्थ ही “जहाँ
पशुओंकी घूमना होता है” – अर्यते मृगै:
इति – इस प्रकार है l
उसका वर्णन” पशुओं की
माता, सुगंधी लताओं के
उबटनसे स्वयं सुगंधित देवता, ‘बिना हल चलाए अन्न की निर्माता’ इस प्रकारसे हैl
बस्तीसे दूर वनोंको ‘अरण्यानी’ माना जाता थाl
पुराणोमें
(1)दंडकारण्य (2)सैंधवारण्य
(3)पुष्करारण्य (4)नैमिषारण्य
(5)कुरु-जांगल
(6) उत्पलावर्तकारण्य (7)जंबुमार्ग
(8)हिमवदरण्य (9)अर्बुदारण्य -
इस प्रकार नौ नाम
प्राप्त होते हैं l
प्राचीन
साहित्यमें वनदेवता वनोंपर, वन्य जीवोंपर – मनुष्यपर भी – अपना स्नेह प्रचुर
मात्रामें अन्न-वस्त्र-आभरण देकर प्रकट करती है ऐसा वर्णन हैl
जातक कथाओंमे वनदेवताओंने भगवान बुध्द को अन्न दिया, वस्त्र दिये ऐसा बताया हैl
अभिज्ञान
शाकुंतलम में शकुंतला के
विवाह को वनदेवता साक्षी थी, शकुंतला को बिदाई के समय वनदेवताओंने वस्त्राभरण दिये
ऐसा वर्णन हैl वाल्मिकी रामायणमें विश्वामित्र
वनदेवताओं की
अनुज्ञा
लेकर सिध्दाश्रमपदसे मिथिला की
ओर श्रीराम-लक्ष्मण को लेकर चल पडे ऐसा वर्णन हैl
उस समय आश्रम के
पशु-पक्षी तपोवन की
सीमा तक उनको बिदा करने के लिएअ उनके पीछे
चलते रहे ऐसा काव्यात्मक वर्णन भी हैl पूरे
सृष्टिके साथ मानवीय संबधों जैसा सुह्रद
भाव का ऐसा वर्णन सभी काव्योमें, कथाओमें आता हैl
वर्तमान
पर्यावरणीय प्रतिकात्मतामें बाघ को वनोंके पर्यावरणीय संतुलनरूप त्रिकोण का शिरोबिंदू माना जाता
हैl हमारे देशके वन्य समाज भी
बाघ को “वनस्पती माँ” (वनदेवता) का सैनिक/सेवक/दूत मानते थेl
केरलमें
अय्यप्पा, तमिलनाडूमें अय्यनार, महाराष्ट्रके कोंकण में ‘ब्रह्मदेव’ वनदेव हैं
l इनका निवास संरक्षित वन, संरक्षित छोटे-बडे जलाशय के
पास हुआ थाl यह क्षेत्र मानो गाँवकी
पर्यावरणीय व्यवस्थाका ह्रदय
और प्राण तत्त्व
थाl
[3]
कृषिप्रधानता और वर्षापर अवलंबित्व इन कारणोंसे ‘पर्जन्य’ के संबंधमें हमारा समाज
बडा भावुक था-भावुक हैl
वर्ष के पाँच-छ्ह मास वर्षासंबंधित समाचार प्रसृत होते हैंl
यह वर्षाकी महत्ताको दर्शाते हैंl
स्कूल-कॉलेजों
में कभी प्रवेश तक नहीं किया ऐसी कई पिढियाँ पर्जन्यमान, पर्जन्य के लिए अनुकूल सूर्य-मार्ग
के नक्षत्र, नक्षत्रों को
आधार बनाकर वर्षा के संबंधमें भविष्य इनसे परिचित थी और हैं
l विश्व
में इस प्रकारकी सृष्टि-विज्ञान
के प्रति
जागरुकता और कहाँ होगी? लोकश्रध्दा, विज्ञान
तथा अनुभव के
आधारपर कितनी खरी उतरती-शोध का
विषय अवश्य है-परंतु
सजगतासे भाव-विश्वमें ‘पर्जन्य’ का प्राधान्य स्पष्ट होता हैl
देशभर
में लोकगीत, प्रार्थनाएँ, सामूहिक व्रत आदि
का विषय पर्जन्य हैl
13. पर्यावरणीय संकल्पनाओंके
उदाहरणः
(3) सजीव सृष्टि-वनस्पती
[1]
तुलसी :- गाँवोमें घरके आंगनमें; तो शहरोमें बाल्कनीमें तुलसी अवश्य होती हैl
“छोटी
मूरत-बडी
कीरत”! न फूल है-न फल है तो भी उसकी सेवा की जाती हैl
तुलसी श्रध्दाके पात्र है माना जाता है कि उसके अंग
प्रत्यंग में देवताओंका निवास हैl
देव-दानव अमृत हथियाने के
लिए संघर्ष कर रहे थे तब जो अमृत बिंदू भूमीपर गिरा उससे तुलसी का निर्माण हुआ ऐसी
कथा हैl तुलसी का प्रत्येक अंग,
जडों के
चारो ओर की मिट्टी भी औषधीय गुण रखते हैंl
तुलसी कुमारिका मानकर उसका श्रीकृष्णके साथ विवाह-विधि संपन्न होता हैंl
आंगनमें तुलसी की प्रदक्षिणा काशी की यात्रा के समान पुण्यकारक है ऐसी
काव्यपंक्तियाँ भी उपलब्ध हैl
[2]
नारियल और केला ये दोनो फल तथा वृक्ष मांगल्य के प्रतीक हैंl मंगलकलश, मंदीरके शिखरपर रखा कलश
नारीयलके साथ ही होते हैंl
मांगल्य के साथ ही वह नवसृजनका भी प्रतीक हैंl
विवाहित स्त्री को
अपत्यप्राप्ति के
आशिर्वचन
के रूपमें
नारियल
दिया जाता हैl
केले के वनस्पति
में भी देवता का निवास माना गया है – इसलिए योगाभ्यास तथा ईश्वरचिंतनके लिए केले के पेडकी छाया वरेण्यं हैl
मंगल-विधि
के समय प्रवेशद्वारपर
ही केले का
पेड-फूलसहित-आवश्यक माना जाता है l
यह पध्दति प्रमुखत: महाराष्ट्रमें हैl
महाराष्ट्र की
लोकसंस्कृतीमें केले का पेड ‘व्रतस्थ स्त्री’ समान कही गयी है, महिलाएं लोकगीत गाती हैं – जिसका आशय है –
केलेका पेड केवल ’स्त्री’ तत्त्व
हैl विनाभोग वह गर्भवती होती
है, और एक ही प्रसव
के पश्चात
जीवन की समाप्ति भी प्राप्त करती हैl
संस्कृत साहित्य में ‘केले’ का पेड सौष्ठवपूर्ण स्त्री-शरीर का प्रतीक हैl
[3]
भारतीयोंके भाव-विश्वमें वृक्षों के प्रति जो मांगल्य, पावित्र्य, पूज्यत्व आदि भाव हैं उन
भावों
का आविष्कार अनेक प्रकारसे होता है l
अलग-अलग
देवताओं को
अलग-अलग वनस्पतियाँ प्रिय हैंl
श्रीगणेश को दुर्वा, श्री महादेव को बिल्व – महाशिवरात्रिके पर्वपर बिल्व की आरती भी उतारी जाती हैl
अग्निहोत्रमें अश्वत्थ की सूखी लकडियाँ आवश्यक होती हैंl
इस कामके लिए शाखाएँ
तोडनेके पूर्व अश्वत्थ की भी आरती उतारी जाती हैl
‘कुश’ साधारण तृण है, परंतु ‘दर्भ’ के रुपमें वह सभी धार्मिक कार्यो में आवश्यक हैl
चैत्र मासमें ‘दमनक’ अलग-अलग तिथियोंको अलग-अलग देवताओंको अर्पण किया जाता हैl
‘दमनक’ की जन्म कथा भावपूर्ण हैl
श्री महादेव ने मदन को भस्मसात किया तब उसकी शोकाकुल पत्नी ‘रति’ वहाँ गयी थीl
उसके अश्रू मदन के भस्मीभूत शरीरपर पडे वहाँ ‘दमनक’ का जन्म हुआl
अनेक
वृक्ष, चैत्यवृक्ष, बोधिवृक्ष हैंl
भगवान महावीर तथा अन्य तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ आम्र, सप्तच्छ्द, अशोक इ. वृक्षोंके
नीचेही
होती हैंl
महावीरजी को शालवृक्ष के नीचे,
तो भ. बुध्द को अश्र्वत्थ के नीचे
‘ज्ञान’
प्राप्त हुआ l संत ज्ञानेश्वर का समाधिस्थान ‘अजान’ वृक्ष हैl
भ. श्रीकृष्ण के जीवन का अंत अश्वत्थ के नीचे ही हुआl
अश्वत्थ को ”ऊर्ध्वमूलमध: शाख:” संसार वृक्ष
के प्रतीक के नाते श्री.भ.गीतामें बताया हैl
‘नीम’ भगवान जगन्नाथ का प्रतीक है – उसकी छायामें असत्य-वचन बहुत ही बडा पातक माना
जाता हैl वनवासी बंधू बांबू-बांस
को प्रदक्षिणा करके विवाह विधि
संपन्न करते हैं
तथा बांस को
ही अपनी बस्तीका ‘रक्षक’ मानते हैंl
संस्कृत
कवि,
साहित्यकारोंने कुछ वृक्ष और स्त्री-विभ्रमोंका
शृंगारपूर्ण संबंध प्रस्थापित किया हैl
स्त्री के स्पर्शसे प्रियंगुलता, लत्ताप्रहार
से अशोक, नेत्रकटाक्ष से तिलक, इ. वृक्षोंको ‘दोहद’ उत्पन्न होता है, फूलों-फलोंकी
बहार आती हैl
14-पर्यावरणीय संकल्पनाओंके
उदाहरण [3] सजीवसृष्टी-प्राणि.
[1]
गाय:- सर्वाधिक पूज्य, पवित्र और साथ ही साथ कृषिप्रधान आर्थिक रचना का प्रमुख
आधार
गाय है l गोरस अर्थात दूध, गोमूत्र,
गोमय महत्त्वपूर्ण लाभ हैंl
गाय माता है, देवमाता है, देवता है, तैंतीस कोटी देवताओंका निवास भी हैl
महाभारतमें कथा हैl
लक्ष्मी-देवीने ‘गाय’ के साथ निवास करनेकी इच्छा व्यक्त कीl
गोमाताओंने लक्ष्मी-देवीका चांचल्य का अवगुण का कारण देकर अनुमती नही दीl
देवी ने पुन: बिनति करने के पश्चात
गोमाता ने देवी लक्ष्मी को गोमय-गोमूत्र में निवास करनेको कहा
l यह साधारणसी कथा आशय-घन है – लक्ष्मी की अस्थायिता, कृषि-पशु-धन का स्थैर्य,
गोमय, गोमूत्र का खाद के नाते मूल्य इ. इस कथामें निहित हैl
गायको
साथ बैलों का
भी कृषी में माहात्म्य हैl
अर्थववेदमें उस पर सूक्त हैl
मैसूर के पास ही एक मंदीर में बैल ही आराध्य-देवता है
l ‘नंदीश्र्वर’ इस नामसे बैल भगवान शिवके भूतगणों का सेनापती हैl
देशके सभी प्रदेशोंमें
– किसी ना किसी पर्वपर बैल-पूजा, मिठाई का
भोजन, सजा-धजाकर शोभायात्रा इ प्राप्त होता
ही हैl
प्राचीन
जीवनमें गाय-बैल महत्वपूर्ण संपत्ति
थीl गोधन ही दातृत्व का तथा
विनिमय-वाणिज्य का माध्यम थाl
युध्दों का
भी कारण थाl गोधन की गिनति के लिए एक
हजार पशु ‘एक गोकुल’ माना जाता थाl
राजाओं का
गोधन बहुत ही विशाल रहा करता थाl
ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिरके पास 100 गायोंका एक ऐसे अडतीस लाख समूह थे ऐसा कहा गया
हl मोंगल बादशाहोने एक लाख
बैल रखनेवाले एक बंजारा व्यक्ति को मनसबदार बनाया थाl
सेना का सारा सामान ढोनेके लिए
उसकी नियुक्ति की थीl
इतने
विशाल गोधन के चरागाह के नाते विशाल भूमि
रखी जाती थीl ‘व्रज भूमि’ इस संज्ञामें ‘व्रज’ याने ‘व्रजंति गावो यस्मिन्’ - ‘जहाँ गाय-बैल चरते चरते घूमते
हैं’ वह प्रदेशl
कहा जाता है प्राचीन ‘व्रज भूमि’
में पांच पहाड,
चार बडे तालाब, एकसौ
उनसठ कुंड, बारा नामों के वन थेl
पशुपालन, पशुवैद्यक, सुप्रजनन आदि सभी शास्त्रों का पर्याप्त विकास
हुआ थाl गाय दिन में तीन समय दोही
जाती थींl
“इमे
लोका: गौ:” – “स्थावर-जंगम सभी का
आत्मा गाय” ऐसी श्रद्धा और ऐसे वचन थेl
लोक-संस्कृतिमें
गाय के पदचिन्ह ‘मंगल गोपद्म’
थे, चरागाहसे लौटने का शामका समय गो-रज मुहूर्त था, जलप्रवाह को पवित्र बनाने हेतू
गोमुख थेl इन संकेतों का, प्रतिकात्म व्यवहारों का, विधियों का कोई अंत नहीं थाl
[2]
गरुड – पक्षियोंका राजा है l
वह भगवान विष्णु का
वाहक हैl वैनतेय इस नाम से भी वह
प्रसिध्द
है l उस के सामर्थ्य की, पराक्रम की कई कथाएँ हैंl
पुराणोंमें सर्पों को
वश करने की गरुड-विद्या भी हैl
गरुड स्वयं
भगवान विष्णु की
आज्ञा
का अनुकरण करते हुए विष्णु-तत्त्व की
महत्ता बता रहा है, वह है गरुड-पुराण!
[3]
कुत्ता – वैदिक कालमें भी कुत्ता मनुष्य का साथी था ऐसा लगता हैl
इंद्र की दूती
बनकर
‘सरमा’ ‘पणी-राज्यमें’ गयी थी और बृहस्पति का
गोधन ले आयी थी ऐसी वैदिक कथा हैl
साक्षात यमधर्म श्वान के
रुपमें युधिष्ठिर के
साथ स्वर्ग के
द्वारतक
गया ऐसी कथा महाभारत में हैl
भगवान दत्तात्रेय के साथ चार वेदोंके प्रतीक
के नाते चार श्वान दिखाए जाते हैंl
छत्रपति
शिवाजी महाराज
के निष्ठावान कुत्तेने अपने जीवन की
समाप्ति
महाराज के
पार्थिव के
चितादाह में कूदते हुए
की थीl
[4]
नागों का
भी बडा माहात्म्य हैl
वासुकी, तक्षक इ. नागोंकी, नागकुलकी कई कथाएँ
हैंl ‘शेष’ नाग के कुंडलपर
भगवान विष्णु शयन करते है ऐसी प्रतिकात्म कल्पना हैl ‘शेष’
विष्णुका अनुचर भी हैl श्रीराम-अवतारमें
‘शेष’ लक्ष्मण बना था, कृष्णावतार में वह बलराम थाl
देवता तथा महात्माओंका नागोंसे संबंध हैl
शिवजी के गलेमें, गणेशजी के लंबोदरपर-नागके कुंडल हैंl
भगवान बुध्द को जन्म होतेही दो नागोंने नहलाया था, संबोधी प्राप्त होते ही नागके
फन का छत्र उन्हे प्राप्त हुआl
मेवाडके राणा संग, इंदूर के
मल्हारराव होलकर आदि
पराक्रमी ऐतिहासिक पुरुषों को
जन्मत: नाग-छ्त्र प्राप्त था जो भावी राज्य-प्राप्तिका प्रतीक थाl
नागपंचमी नागपूजा का दिन हैl
कुछ प्रदेशो में वह शुभमुहुर्त भी माना जाता हैl
कई स्थानोंपर ‘कुल’ के प्राचीन पूर्वज ‘कुल पुरुष’ नाग के रूपमें कुल-परंपराके स्थानपर ही
निवास करते हैं ऐसी श्रध्दा होती हैl मलबारमें
एक तीर्थक्षेत्र है जहाँ असंख्य नागमूर्तियाँ पत्थर में बनायी हुई हैंl
वृक्षों,
पशुओं, पक्षियों के संबंधमें ये जो भावनाएं थी उनका उन विशिष्ट प्रजातियों के संरक्षण से किस प्रकार संबंध
था यह समझना आवश्यक हैl
कई कुल, कई जातियाँ किसी न किसी पशु-पक्षी-वृक्ष के नामसे जानी जाती हैl
आज भी उनके अटक के नाते वे नामही हम पाते हैंl
उन कुलों – जातियों के लिए वे पशु-पक्षी-वृक्ष ‘देवक’ थेl
देवक पूज्य था -अभोग्य
था- उस बहाने रक्षणीय था l
व्यक्तिगत जीवनमें उनका किसी भी प्रकार का उपयोग याने भोग निषिध्द था - यहाँ तक कि
‘देवक’ वृक्षकी छाया में विश्राम करना भी भोग एवं निषिध्द थाl
कई सारी देवताएँ,
विष्णुअवतार पशुमुख हैंl
ये सभी श्रध्दाएँ
उन विशिष्ट प्रजातियोंके संरक्षण संवर्धन का कारण बनींl
15 पर्यावरणीय संकंल्पनाओंके उदाहरणः (4) मनुष्यनिर्मित संकल्पनाएँ
संस्कृति के विकासक्रममें मनुष्यने कई
सकंल्पनाओं का
निर्माण कियाl
उन सभी जीवनावश्यक तत्त्वों का
विज्ञान
के नाते विचार करते हुए
- तत्वज्ञान
और भाव-विश्व के नाते भी विचार कियाl
हर संकल्पना की
शुध्दता तथा पवित्रता मनुष्य के
मनमें रहे इसलिए मानवीकरण, दैवतीकरण का उपयोग कियाl
मानवीकरण से भाव जुटते हैं और दैवतीकरणसे भावोंको उदात्त पवित्रता प्राप्त होती हैl
हर संकल्पनाका विज्ञान-तत्त्वज्ञान-भावविश्व विकसित किया।
[1]
वर्णमाला भाषाका अत्यावश्यक अंग हैl
विज्ञान
के नाते व्यंज़न-स्वर, वर्णों के
उच्चार का स्थान-कंठ, दंत, तालु इ. का, ध्वनिशास्त्र का विचार करते हुए अत्यंत विकसित रूप दिया गयाl
पेटसे नाक तक शरीर के
नौ अंग मनुष्यके ध्वनियंत्र के
घटक होते हैं – आदि
विज्ञान का जैसा विचार हुआ उसी प्रकार
उनको देवरूप
देकर उनके मूर्तिध्यान
भी ग्रंथबध्द हैंl
उनपर मनुष्यों के भावोंका भी आरोप हुआl
उदा. ‘च’ षोडषवर्षीय, अभयहस्त-वरद देवतारुप हैl
सर्वाधिक पूज्यभाव ओम् को प्राप्त है, वह उपास्य भी हैl
[2]
कालगणना व्यावहारिक आवश्यकता हैl
उसका विज्ञान
वैदिकों ने
प्रथम स्पष्ट कियाl
“न
रात्र्या अहन् आसीत प्रकेतः” अर्थात जब सत्-असत् कुछ भी नहीं था तब ‘काल’ भी नही
था – कालगणना का आधार दिन-रात-प्रकाश ही नहीं थाl
तत्त्वविचार
यह रखा गया की काल चक्रगति
है – एकरेषीय नहीl
‘बिग बँग’
से भी चक्र-गति का
ही संकेत मिलता हैl संवत्सरों
का भी चक्र है, युगोंका, कल्पों का चक्र हैl
कालपुरुष, चैत्रादि मास और तिथियों के ध्यानकी संकल्पनाएं भी
निश्चित हैंl ‘एकादस’-सिंहमुख और ‘मृगारुढ’
है – एक हाथ में तोल है, दूसरे
हाथमें कैंची
है इ. कल्पनाएं
हैंl हर तिथी का फल/माहात्म्य बताया है – उदा. चैत्र-मास की-वद्य प्रतिपदा के दिन सृष्टि का निर्माण हुआl
ज्येष्ठ मास के
पौर्णिमा के दिन वेद प्रकट हुएl
केवल व्यवहारपूर्ती
(Functional approach) की
दृष्टि
न रखते हुए
मनुष्य के मनोविज्ञान को
समझकर – विज्ञान, तत्त्वविचार, भाव या फल- इन तीनोंका विचार किया गया l
केवल व्यावहारिकता संवेदनाहीन मनुष्य को
जन्म देती हैl
[3]
संगीत-कलामें श्रुति-स्वर-नाद इ. का वैज्ञानिक विचार हुआ
l राग-रचना का मेल / थाट,
वादी-संवादी-अनुवादी-विवादी
स्वर इ. विचार हुआl
साथमें ‘नादब्रह्म’ उपास्य बताया गया हैl
राग-रागिणी इस प्रकार रागों की
गंभीर-चंचल प्रकृति की
कल्पना की गयी और हर राग-रागिणी का किसी न किसी निसर्गस्थिति, मनुष्य के भाव ‘रस’ की कल्पना
के साथ विचार हुआ जो ‘रागमाला’
मिनिएचर्स के रूपमे
हम पाते हैंl
[4]
आकाशस्थ ज्योति-तारों
की सृष्टि हैl
नक्षत्रों के आकृतिबंध मनुष्य निर्मित हैंl
‘नक्षत्र’ –भारतीय संकल्पना है
l ‘राशी’ की कल्पना ‘ग्रीक’ है
l नक्षत्रों के ध्यान बताये गये हैंl
अर्थववेद में उनकी देवता नहीं थी – यजुर्वेद में नक्षत्रोंकी देवताएं हैंl
ब्राह्मण कालमे देवनक्षत्र-यमनक्षत्र विभाग हुआ पश्चात फल भी बताये गयेl
16.पर्यावरणीय संकल्पनाओंकें उदाहरणः (5) मनुष्यनिर्मित वस्तुएँ
प्राचीन
समयसेहीं मनुष्य आवश्यक वस्तुओं का
निर्माण करते आया हैl
अश्मयुगमें भी पत्थरों के
साधन बनायें गये थेl
उस प्राकृतिक अवस्थासे बाहर निकलकर यथावकाश संस्कृति का निर्माण होते गया वैसेही
वस्तुजगत विस्तृत-होते
गयाl विजयादशमी के दिन इन वस्तुओं को हम पूजते
हैंl जीवनकी सुफलता के
सांझेदार हैं, जीवनमान साथीदार हैं इस भावसे कृतज्ञता व्यक्त करनेहेतु पूजन किया जाता हैl
भिन्न भिन्न वस्तुओं का
किस प्रकार विचार किया गया इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
[1]
स्वच्छ्ता स्वस्थ-आरोग्यपूर्ण
जीवन के लिए आवश्यक हैl
अत: स्वच्छता प्राप्त करने के
सभीं
साधनों को पवित्रता, महत्ता
बहाल की गयी थीl
फसल साफ करनेहेतु
बनाया खलिहान देवी लक्ष्मीका
मानो निवास थाl अपरिचित व्यक्ति के वहाँ प्रवेशका निषेध थाl प्रवेश करनेवाले मंदीर के समान जूते-चप्पल उतारकरही प्रवेश
करते थेl
अनाज साफ करने का दूसरा साधन छन्ना! पवित्र, शुध्दिकारक है – यहाँ तक कि फसल के
नये दाने छन्नेमें लेते हुए जो भाव मनमें रखते थे – उसी भावसे नवजात शिशु छन्नामें
रखा जाता थाl
छन्नेमें दीप रखकर –अन्य नित्य उपयुक्त व अन्न-जल का माहात्म्य जिसे प्राप्त है
ऐसे चूल्हा, कलश, छाछ मथने का खंभा-इन साधनों की आरती उतारी जाती थीl इसके अनुकूल लोकगीत उस समय गाये जाते थेl झाडू भी ‘लक्ष्मी’ का रुप थाl
[2] प्रतीकात्म व्यवहारों की भावुकता ह्द्यस्पर्शी हैl इस घटना को अंत:चक्षुओं के साक्षात
कीजिए - छाछ मथने का खंभा समृध्दता तथा आरोग्यपूर्णता का
प्रतीक हैl
इसलिए शिशु का माथा उसकी माता खंभेके सामने भूमीपर रखकर उससे नमन करवाती हैl खंभे को ‘दुर्वा’ का चढावा किया जाता है – ‘दुर्वा’ आशिष
देती है, हरियाली के घांस के समान “निरंतर वंश-विस्तार हो” l पश्चात खंभे को ‘कपास’ का चढावा किया जाता हैl इस बार अपेक्षा है कपास के समान दीर्घायुष्य प्राप्त होl
[3] दीप-दीपज्योति प्रकाश याने ज्ञान प्राप्त करने का साधन
होने के नाते परम पवित्र, मंगल माना गया हैl प्रत्येक दिन सुबह-शाम दोनो समय वह पूजा के पात्र हैl दीपज्योति जनार्दन है, परब्रह्म है ऐसी भावना व्यक्त
करनेवाले कई स्तवन हैंl कलापूर्ण दीप की सहाय्यता से – या सादगीकी ज्योतिसे
महात्माओं की, वीर पुरुषों की, देवताओं की, गोमाता की आरती उतारी जाती हैl लोकमाता नदी का पूजन करनेहेतु छोटे दीप प्रवाह में तैरते
छोडे जाते हैंl दीपज्योति – प्राणज्योति का भी प्रतीक हैl दीपावली, कार्तिक पैर्णिमा तो केवल दीपोत्सव हैंl
17. मूल्य
चिंरतन, आविष्कार काल सापेक्ष
अपने जीवनमें हम चारो ओर जिन सजीव-निर्जीव पदार्थों को, तत्त्वों
को नित्य देखते हैं, उपयोगमें लाते हैं उनके संबंधमें जिन भावनाओं को हमारे समाजने
सदियोंसे संजोया, पीढी दर पीढी जगाया-हस्तांतरित किया उनकी यह झलक मात्र हैl देंश के भिन्न-भिन्न भागों में इन में भी विविधता होगीl यह संकलन ‘भारतीय संस्कृति कोश’ से प्राप्त किया हैl
इस संकलनका यह हेतू नहीं है – कि इन व्यवहारों को वैसाही
पुन: प्रस्थापित किया जाएl प्रारंभसे ही इस विवेचनमें ऐसा पक्ष रखा गया है कि सभी
जीवनोपयोगी वस्तुओं-तत्वों-साधनों के संबंधमें कृतज्ञता का, पूज्यता का भाव रहेl ऐसे भावों का आविष्कार करनेवाले व्यवहारोंसे उन
वस्तुओं-तत्वों पर किसी प्रभाव की या संस्कार की अपेक्षा नहीं हैl व्यवहार करनेवाले मनुष्यपर ही संवेदनशीलता का, सहसंवेदना
का संस्कार हो यह अपेक्षा हैl इन वस्तुओं-साधनों के प्रति भावनाहीन उपयुक्तावादी दृष्टी
रखने का परिणाम होता है कि मनुष्य असंवेदनशील, सहसंवेदनाहीन बनता हैl क्रमश: वह समाजबांधवोंके प्रति और सारी सृष्टी के प्रति
संवेदनहीनता का और निरी स्वार्थपूर्ति का व्यवहार करते लगता हैl दायित्वभावसे
शून्य व्यक्ति सामाजिक पर्यावरण-नैसर्गिक पर्यावरण दूषित करता हैl हर एक जीव, हर एक तत्त्व, हर एक वस्तु स्वार्थहेतुही उपयोग
लाते हुए और उस लाभ के बदले कुछ भी न देने की प्रवृती उसमें जगती हैl श्री.भ.गीता के सोलहवे अध्यायमें इसको असुर प्रवृती
“अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्” कहा गया है
l समाजका प्रत्येक व्यक्ति
उसके जीवन के लिए आवश्यक सब कुछ समाजसे तथा सृष्टीसे अवश्य प्राप्त करे और अपना
दायित्व भी निभाए यह भाव जगाने के लिए उपर्युक्त मूल्य अनिवार्य हैंl भाव-विश्व आवश्यक हैl व्यवहार-भावनाका आविष्कार-कालसापेक्ष है
l इस चिरंतन मूल्य को,
भाव-विश्व को और किसी न किसी आकृतिबंध के साथ सश्रध्द व्यवहारको पीढी दरपीढी
हस्तांतरित करते रहने की व्यवस्था भी आवश्यक हैl
18
साहित्यमें आविष्कार
सृष्टीके संबंधमे जो आस्था, गौरव तथा कृतज्ञता की भावना
जनमानस में थी वह साहित्यमें किस प्रकार आविष्कृत हुई यह देखना उपयुक्त हैl कला-साहित्य समाजसे भाव एवं रस स्वीकार भी करते हैं और
पाठक व्यक्तिमें उन्ही भावों और रसों का निर्माण भी करते हैंl
[1] वेद विश्र्वकी प्राचीनतम रचनाएँ हैं
l अर्थात सृष्टीके संबंधमें इन
भावों को प्रकट करनेवाला विश्व का प्राचीनतम साहित्य वेद हैl यहाँ इंद्र, वरुण, मरुत, पर्जन्य इ. तत्त्व, गाय जैसे पशु,
क्षुद्र या बडी वनस्पति, द्यूत में उपयुक्त अक्ष याने फांसे जैसी निर्जिव वस्तु
आदि के स्तवन हैंl वे सब सुरक्षित, समृध्दतापूर्ण, आरोग्यपूर्ण जीवन प्रदान
करे ऐसी प्रार्थनाएं हैंl
आप, आपोदेवता ये संज्ञाएँ सर्वसाधारण
जल तथा नदी जैसे जलप्रवाहों का निर्देश करती हैंl वैदिक ऋषि कहते हैं – ‘आप’ शुध्द, मधुर, निर्दोष हैl वह सागर में निवास करता हैl आकाशसे निकलकर सागरकी ओर ही बहता हैl ‘आप’ रोगनिवारक है, उसने ही स्थावर-जंगम सृष्टी का निर्माण
कियाl हे
‘आपोदेवियों’ आप कल्याणमय हैंl आप हमे धन, सन्मान दीजिए
l माता अपने शिशु को स्तन्य
देती है उसी प्रकार अपना मंगल रस आप हमे पिलाएँl ‘आप’ ही ज्योति है, रस है, अमृत है, ब्रह्म है, सारा
त्रिलोक हैl
‘आप’ ही – ओम् हैl
उष:काल प्रतिदिन होनेवाली घटना है
l इस घटना को वैदिकोने अनुपम सुंदर स्त्री-रुप प्रदान किया,
ईश्वरत्व दिया और स्तवन कियाl ऋग्वेद में बीस उषासूक्त हैंl उषादेवी द्यूलोक की कन्या, सूर्यपत्नि, सूर्यमाता, निशा की
भगिनी-कई रूपोमें देखी गयी हैl देशके तथा बाहरके विद्वान मानते हैं कि ये सूक्त वैदिकों की
निरामय सौंदर्य दृष्टी के तथा श्रेष्ठ प्रतिभा के परिचायक हैं। विश्व के किसी भी
धार्मिक साहित्यमें ऐसी रसपूर्ण, सुंदर रचना नहीं हैl
[2] उपनिषद वेदों की अंतिम विकसित अवस्था होने के नाते
‘वेदांत’ कहलाते हैं l ‘छांदोग्य’ उपनिषदमें सत्यकाम जाबाल की कथा हैl उसकी सत्यप्रियता से संतुष्ट होकर अज्ञात गोत्र के उस
दासीपुत्र का भी उपनयन करते हुए उसके गुरुने उसे चार सौ कृश-दुर्बल गाय लेकर वनमें
भेजाl
सत्यकाम ने जाते समय कहा इनकी संख्या एक सहस्र होनेके पश्र्चात ही लौटुंगाl वनमें दीर्घकाल निवास करते समय ऋषभ, हंस, मदुग (कौआ) इन प्राणियोंसे तथा अग्निसे ज्ञान
प्राप्त हुआ-जिस से वह ‘ब्रह्मविद्’ हुआ l वह निर्दोष, पूर्ण ज्ञान था जो प्राप्त करते समय सत्यकाम
ने उन चारों को गुरु समान ‘भगवन्’ कहते हुए संबोधन किया थाl
[3] पुराण:- महर्षी व्यासने अठारह पुराणों का निर्माण कियाl श्रुति-स्मृति के विचार, नीति-अनीति विचार-कथाएँ,
नदी-तीर्थक्षेत्रों का माहात्म्य आदि विषय इन ग्रंथोंमें हैंl पर्यावरणीय जागरण की दृष्टिसे इन विषयों का एक माहात्म्य
यह था कि तीर्थों के माहात्म्य को पढकर समाज यात्राओं के लिए उद्युक्त होता थाl प्रवास के विशेष साधन न होते हुए-जीवन काल में पुन: अपने
गाँव लौट पायेंगे या नही इस भय के होते हुए भी – आसेतुहिमाचल दूरीकी यात्राएँ लोग
करते थे – सृष्टि की अंत:प्रतिती, प्रत्यक्ष अनुभव पर्यावरणीय भाव जागरण के लिए
महत्त्वपूर्ण हैंl
पर्यावरणीय जागरण की दृष्टीसे
पुराणोंमें चर्चित दूसरा विषय है पुण्यकार्योंकी संकल्पना! कूप-तडागोंका निर्माण,
वृक्षारोपण, नदी के किनारोंपर घाटों का निर्माण इ. कार्य पुण्यप्रद हैं इस भूमिका
को पुराणोंने प्रभावी पध्दतीसे प्रसृत कियाl राजा-महाराजा, धनिक अपने संपत्ति-सत्ता का प्रयोग इस
निर्माण कार्यमें करते थेl सर्वसाधारण समाज भी सामूहिक श्रमों के माध्यमसे तालाबोंका
निर्माण, रखरंखाव करता थाl इन विषयोंके तज्ञ कुल / वर्ग भी समाजमें थे, जिनका समाजमें
विशेष सन्मान थाl हमारे देशमें मनुष्य-निर्मित और निसर्ग-निर्मित 11-12 लाख
तालाब थे ऐसा अभ्यासकों का अनुमान हैl सवासौ तालाबवाला गाँव आदर्श माना जाता थाl वृक्षों का मनुष्य जैसे भरण-पोषण, आरोग्य-विचार किया जाता
था l ‘शूरपाल’
लिखित ‘वृक्षायुर्वेद’ में दूध-घी-द्राक्षासव-गन्नेका रस इन पदार्थों का
वनस्पतीयों के लिए प्रयोग करनेके प्रस्ताव हैं – यह व्यावहारिक बात थी इसका एक
प्रमाण संत ज्ञानेश्र्वर की रचनामें उपलब्ध हैl
पुराणोमें वृक्षप्रतिष्ठापना के
समंत्र विधियोंका विधान हैl वनस्पती के प्रजाति के अनुसार भी विधान हैंl अग्निपुराणमें जो वर्णन है – वह पढते हुए लगता है कि कोई
माता अपने शिशु को सजा-धजा रही है, बनी-ठनी कर रही हैl सुंगधी विलेपन, औषधयुक्त जलस्थान, पुष्पमालाओंका शृंगार,
सोने से कर्णवेधन ये वर्णन पौधे के लिए है इसका विश्वास नहीं हो सकताl
[4] पर्यावरणके संबंधमें वाल्मिकी रामायणसे क्या बोध
प्राप्त होगा?
नैसर्गिक
संसांधनोका संयमपूर्ण विनियोग करना चाहिए यह बोध प्राप्त हो सकता हैl एक और सृष्टी का तथा समष्टि का शोषण करनेवाला तथा
अत्याचारी रावण और दूसरी ओर
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के नेतृत्व में पूर्णतया सृष्टीपर
निर्भर जीवनशैली का अनुसरण करनेवाला वानर समाज इनके बीच का यह संघर्ष एक स्वाभाविक
पर्यावरणीय रूपक भी हैl मनुष्य तथा सृष्टि के दरम्यान एक भावबंध वाल्मिकी रामायण
प्रस्तुत करता हैl जैसे
निषादराज गुह के परिवारजन, प्रजाजन का कुशल-मंगल समाचार पूछते समय श्रीरमने तथा वसिष्ठ
के सभी आश्रमवासियोंका कुशल-मंगल समाचार पूछते समय विश्वामित्रने उनके उनके अधीन
प्रदेश के वनों तथा पशु-पक्षीयों का समाचार भी पूछाl दूसरा उदाहरण - भरत को अपने आश्रम में अकेला आया देखकर भरद्वाज
के पूछनेपर भरत ने उत्तर दिया “अश्व, हाथी, रथ इन सबको लेकर सैन्य आनेसे
उपवनों-जलाशयोंकी हानी होगी इसलिए अकेला आयाl तीसरा
उदाहरण - रावण जब सीता को बलपूर्वक आकाशमार्ग से ले जा रहा था तब – वनोंके सिंह,
बाघ आदी पशू उनकी छाया का अनुगमन करते हुए रावणके प्रति अपना क्रोध प्रकट कर रहे
थे तथा वृक्ष अपने पल्लवों को “मा भै:, मा भै:” – “हे सीते, भयभीत ना हो” कहकर
सहवेदना प्रकट कर रहे थे ऐसा वर्णन हैl ऐसे और कई उदाहरण प्राप्त हो सकते हैंl
[5] महाभारतमें अनेक पर्व हैं – जो सैंकडो श्लोकों के –
दर्जनों अध्यायोंसे बने हैं l परंतु एक
पर्व है जिसमे एक ही अध्याय-मात्र 17 श्लोकों से बना – हैl इस पर्वका नाम है ‘मृगस्वप्नोद्भवपर्व’
l द्वैतवन में बीस माह बिताने के बाद एक रात उस वन के सभी पशू
युधिष्ठिर को स्वप्नदृष्टांतमें कहने लगे-पाडवों के नित्य और अत्यधिक मृगया के
कारण उनकी प्रजातियाँ नष्टप्राय हो रही हैंl उन्होंने
प्रार्थना की – पांडव निवास बदलेंl प्रभात होते ही युधिष्ठिर अपने बंधुओं, द्रौपदी तथा सेवकों
सहित वनांतर करते हुए चला गयाl यह पर्यावरणीय आशय से भरा पर्व हैl
19. भारतीय
सौंदर्य-विचार भी पर्यावरणीय!
साहित्य-नाट्य-काव्य तथा संगीत-नृत्य-शिल्प-चित्र आदि कलाओं
की सब विधाएँ भारतीय संस्कृति में अपनी अपनी चरम अवस्थामें थीl विश्व के कला-प्रेमी, मर्मज्ञ-रसिक इनकी आशयघन सुंदरतासे
मुग्ध हैंl
भारतीय सौंदर्य-विचार भी निसर्गका गौरव बढानेवाला, सृष्टि के प्रती कृतज्ञता तथा
आत्मीयता का भाव प्रकट करनेवाला हैl कुछ विद्वानोंने कला को निसर्ग का प्रतिरुप माना हैl प्राचीन कवि दंडी का एक उद्धरण इस प्रकार है: “बुध्दिश्च
निसर्गपट्वी कलासु नृत्यगीतादिषु चित्रेषु काव्यविस्तरेषु प्राप्तविस्तारा” –
अर्थात बुध्दिकी “निसर्गपटुता” कला के निर्माण कार्य में महत्वपूर्ण मानी गयी है
l
सौंदर्य की अनुभूति विधाता की स्मृति जगाती हैl पर्वतों के उत्तुंग शिखरोंपर, जलाशयों-नदियों-सागरों के
सुरम्य तटोंपर, नीरव बिहडोमें प्राचीन भारतीयों को ईश्वरी तत्त्व साक्षात् हुआl इस कारण से ऐसे स्थलोंपर तीर्थोंका निर्माण हुआl यह निसर्ग के प्रति गौरव का भाव हैl स्त्री के
अनावृत वक्षों तथा योनी को मिलाकर ‘लज्जागौरी’ की प्रतिमा का हमारी संस्कृतिमें
विधान हैl
उनके दर्शनसे भोग्य-भोक्ता भाव जगने के स्थानपर सृष्टि में विद्यमान सर्वव्यापी
मातृत्व के प्रति पवित्रता और गौरव के भाव जगे यह अपेक्षा हैl
हमारी कला-साहित्य में भरपूर प्रतीकात्मता हैl ‘कमल’ अत्यधिक मात्रामें उपयोग किया हुआ प्रतीक है
l मुख-कमल, नेत्र-कमल, पद-कमल, हस्तकर-कमल- शरीर के कितनेही
अवयवों को कमल-पुष्प की उपमा साहित्यकारोंने दी हैl यौगिक साधना के शास्त्रमें षटचक्रों को भी कमल के समान
माना गया हैl
षट्चक्रों की आधिष्ठात्री देवताओं की सुषुप्ति तथा जागृतावस्था कमल की पंखुडियोंको
भिन्न-भिन्न प्रकारसे चित्रित करते हुए दर्शायी जाती हैl देवी लक्ष्मी “कमला” कहलाती है - उसका यह सुंदर स्तवन ‘कमलोंसे’ कितना भरपूर है:
कमलासन-कमलेक्षण-कमलारिकिरीट-कमलभृद्वहैl
नुतपदकमला करधृतकमला करोतु मे कमलम्ll
अर्थ: ‘कमलासन’ – कमलरुप आसनमें विराजमान – ब्रह्मा,
‘कमलेक्षण’ – कमलकेसमान सुंदर नेत्र जिसके है – विष्णु, ‘कमलारिकिरीट’ – कमलका अरि
याने शत्रु-चंद्र-जिसकी जटाओंमें किरीट रुप है – शिव, ‘कमलभृद्वहै: - कमलका
भरण-पोषण करनेवाले मेघों का जो इष्ट दिशामें वहन करता है – इंद्, इन सभी ने जिस के
पदकमलो में वंदन प्रस्तुत किया है,
जिसने अपने हाथोमें कमल धारण किये हैं, वह कमला-देवी
लक्ष्मी, मुझे कमलसे युक्त-अर्थात वैभव, शुचिता, आरोग्य, कीर्ति, विशुध्द ज्ञान
आदिसे युक्त करेंl
इस रचनामें जितने तत्त्वों को कमल के प्रतीक के द्वारा
निर्देशित किया है उनसे कई अधिक तत्त्व, जैसे-स्त्रीतत्त्व, सृजन-तत्त्व इ. कमल के
द्वारा निर्देशित होते हैंl अर्थववेदमें ‘ह्दय’-पुंडरीक याने श्वेतकमल-यह अभिधान
प्राप्त करता हैl ‘कमलपत्र’ योगी पुरुषकी निर्लिप्तता का प्रतीक हैl पाँच हजार वर्षों से भारतीय कला एंव साहित्य में ‘कमल’ का
प्रतीक विराजमान हैl “उसे वहाँ से हटाने से दोनों के सौंदर्य को बाधा पहुँचेगी”
इन शब्दोमें कमल का माहात्म्य डॉ. आनंदकुमार स्वामी ने बताया हैl
निसर्ग में प्राप्त कई तत्त्व मनुष्य में अपेक्षित श्रेष्ठ
गुणों के निधि-स्वरुप माने गये हैंl ‘नरसिंह’ शब्दमें सिंह पराक्रम, सावधानता, धीरोदात्तता आदि
गुणोंका समुच्चय है, इसलिए इन गुणों से युक्त पुरुष नरसिंह कहलाता हैl हाथी सामर्थ्य का तथा वैभव का प्रतीक हैl मंदिरों के प्रवेशव्दारोंपर अलंकारोंसे सुशोभित गजराज के
शिल्प होते हैंl मंदिरों की
वेदिकाओं (Plinth) पर असंख्य हाथियों के शिल्प की तथा
घोडों के शिल्प की पट्टिकाएँ
रहती हैंl ऐसे असंख्य तत्व गिनाये जा सकते हैं जो भारतीय कलाओंमें तथा
साहित्यमें भाव सौंदर्य, गुण सौंदर्य के प्रतीक-रुप प्रयुक्त होते हैंl
20.
नीतिपाठोंमें भी निसर्ग
मनुष्यों को नीति-अनीति, व्यवहारबुध्दि, धर्म-अधर्म विवेक
आदि का बोध कराने हेतु जो साहित्य का निर्माण हुआ उसमें पंचतंत्र, हितोपदेश इ. कथाओं
के संग्रह हैं तथा ‘सुवचनानि’, ‘सुभाषितानि’ के संग्रह भी हैंl इन साहित्योंमें नदी, पर्वत, वृक्ष आदि तत्त्व तथा विविध
पशु-पक्षी सदगुणों के निधि-स्वरुप दर्शाये जाते हैंl उदाहरण:
1. परोपकाराय वहन्ति
नद्य: परोपकाराय दुहन्ति गाव:l
परोपकाराय
फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय इदं शरीरम्ll
अर्थ: नदियाँ बहती हैं, गायें दूध देती हैं, वृक्ष फलते हैं
– मनुष्यपर उपकार हेतु सें l मनुष्य अपने शरीरको परोपकार हेतु प्रयुक्त करें l
2. सुजनो न
याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेsपिl
छेदेsपि
चन्दनतरु: सुरभयति मुखं कुठारस्यll
अर्थ: लोककल्याणमें तत्पर सज्जन (उन्हीं लोगोंद्वारा
निर्मित) आपदाओंमें भी शत्रुवत व्यवहार नहीं करते हैं l जैसे-
कुल्हड के घाँव झेलनेवाला चंदन का वृक्ष कुल्हड को सुगंधित ही करता है (- वैसे वह
सज्जन लोककल्याण का कार्य निरंतर करते रहता हैl)
‘पंचतंत्र’ जैसी कथाओं में पशु-पक्षी नीति-बोध,
धर्माधर्म-बोध कराते हैंl
उपनिषदोमें कथा है – सत्यकाम जाबाल को अग्नि, हंस, ऋषभ, मदुग (कौआँ) इन सबसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ
l
नैसर्गिक तत्त्वोंपर, पशु-पक्षियोंपर श्रेष्ठ सदगुणों को
आरोपित करते हुए उनके गुणादर्श मनुष्यों के सामने प्रस्तुत करना निसर्ग का महान
गौरव हैl
मनुष्य ही निसर्ग की सर्वश्रेष्ठ कृति है – उसी मनुष्य के सम्मुख अन्य तत्वों को
आदर्शरुप प्रस्तुत करना भारतीय कला-साहित्य की एक विशेषता हैl विश्वमें और कितनी सभ्यताओं में ऐसे उदाहरण प्राप्त हैं?
तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी का एक उध्दरण भा.स.कोशमें
उपलब्ध हैl
उसमें आप कहते हैं, इस प्रकारसे.... “सौंदर्यप्रेरणा धर्मप्रेरणा को यहाँ आत्मसात
करते हुए परमोत्कर्ष प्राप्त करती है”l
समापन
इस विवेचनमें पर्यावरणीय विचार तथा जागरण के बाह्य एवं
भौतिक मुद्दोंकी वैग्यानिक चर्चा को प्रस्तुत नहीं किया हैl उन मुद्दों का महत्व वादातीत हैं – वैग्यानिक ज्ञान (Know How) परम
आवश्यक है l
पर्यावरणीय जागरण के आंतरिक, भावनिक पहलुओं के यहाँ थोडा अधिक महत्वपूर्ण माना है –
“आत्मीयभाव, कृतज्ञभाव, गौरवभाव” मनुष्य को अपने निजी स्वार्थ तथा अहंकार के धरातल
से उपर उठाते हैं, समष्टि तथा सृष्टि के कल्याण के हेतु कृति करने की उदात्त
प्रेरणा जगाते हैंl इस भाव-विश्वमेंही सृष्टि के कल्याण की “गैरंटी” हैl
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