5 मूलभूत सूत्र
5.1 वैश्विक एकात्मता
हिन्दू जीवन दृष्टि यह
मानती है कि
अस्तित्व मे सारे अविष्कार एक ही
चैतन्यतत्त्व से विकसित होते है। परिणामत: विविधता से
भरे हुए विश्वव्यापार के
सभी घटकों मे
मूलत: एकात्मता है।
यह एकात्मता दो स्तर पर दिखाई देता है। आत्मिक स्तर पर मूलत: एकात्मता व सृष्टि स्तर पर
विविध घटकों में प्रतीत होने वाली जैविक एकात्मता।
5.2 वैयक्तिक आत्मिकता से वैश्विक आत्मिकतातक उत्कर्ष
स्वयंकी अनुभूति को व्यापक व
उन्नत करना मनुष्य का मूल स्वभाव है और अध्यात्म अर्थात शरीर-मन-बुध्दि के पार
जाकर अपने आत्मिक ज्ञान का विस्तार करना इसी ज्ञान की परिधि मनुष्य को प्राप्त संवेदनशीलते द्वारा व्यापक होता जाता है व परिसर समूह तथा
संपूर्ण समाज तक
इस आत्मीयता का बंध पहुँचता है। इसी
प्रकार एकही चैतन्यतत्त्व सभी
जगह भरा हुआ है
जिसके मूल्य का
यथोचित साक्षात्कार होने के बाद इस
आत्मीयता का बंध निसर्ग तक पहुँचता है और
अंत मे प्रत्यक्ष सृष्टि के मूल मे
स्थित इस चैतन्य में परमेश्वर से
एकरूप होने की
क्षमता मनुष्य के
अंदर विकसित होती है। इस प्रकार आत्मानुभव से वैश्विक एकात्मिकता तक मनुष्य की आत्मा का
विकास हो सकता है। यह हिन्दू जीवन दृष्टि की
धारणा है। व्यक्ति -समष्टि-सृष्टि-परमेष्ठि, एक उत्तरोत्तर उच्च स्तरकी एकात्मता की अनुभूति होती है।
5.3 त्रिगुणात्मकता
प्रकृति में अर्थात इस
स्थूल सृष्टि में
'सतत परिवर्तन होना' ही कार्यरत तत्त्व है। सत्व (प्रकाश, ज्ञान) रज (क्रियाशीलता) व तम (आलस्य, जडता) ये आपस मे असंख्य मिश्रण बनाते रहते है जिसके द्वारा लगातार इस सृष्टि का स्वरूप बदलता रहता है।
मनुष्य का शरीर मन
तथा बुध्दि भी
इस सत्व,
रज और तम
जैसे त्रिगुणों का
मेल है। उनके द्वारा व्यक्त होती विविध वृत्तिायों को
ध्यान मे रखकर ही उनको सुयोग्य दिशा देने वाली काबू मे रखने वाली तथा उन्नती करने वाली सामाजिक संस्थाओं का निर्माण व संचालन करना आवश्यक है।
5.4 चतुर्विध मानवी व्यक्तित्व
शरीर-मन-बुध्दि-आत्मा ये चार परिमाण मनुष्य के व्यक्तित्व के
चार अलग अलग
पहलू नही है, बल्कि इन चारों का मेल ही
मनुष्य का व्यक्तित्व है।
एकात्म मानवी व्यक्तित्व की
चतुर्विधता को ध्यान मे रखकर ही
मनुष्य के जीवन व्यवहार की उत्ताम व्यवस्था व्यक्ति व
समाज को नियोजित करनी चाहिये।
5.5 पुरूषार्थ चतुष्टय
पुरूषार्थ का अर्थ है अपनी इच्छापूर्ति के
लिये किया जानेवाला समग्र प्रयत्न। पुरूषार्थ की
संकल्पना मे धर्म, अर्थ , काम तथा मोक्ष ये चार पहलू है। धम-अर्थ-काम-मोक्ष इन
चार पक्षों को
इस क्रम में
लिखने का एक
विशिष्ट अर्थ है।
अर्थ तथा काम
को धर्मानुसार होना चाहिये अर्थात उनको सामाजिक नीति की
मर्यादा मे रहना चाहिये। ऐसे 'धर्म्य' सुख
-साधन से व्यक्ति स्वत: का सुख, समाज हित,
निसर्ग संतुलन तथा
अंतिम जीवन साफल्य अर्थात चिरंतन निरामय आनंद की प्राप्ति कर सकता है।
6 अन्य संकल्पना (विश्व का स्वरूप)
6.1 अपनी जीवनदृष्टी ऐसा मानती है कि अस्तित्व के सभी अविष्कार एक ही चैतन्यतत्व से
विकसित हुऐ है।
परिणामत: विविध अनंकारपूर्ण विश्व व्यवहार के सभी
घटकों मे मूलभूत एकात्मता है। अस्तित्व अनेक श्रेणियों मे
भले ही दिखाई देता हो, फिर भी उनमे परस्पर संबंध है।
अस्तित्व का प्रत्येक घटक अपने मे
संपूर्ण होकर भी
किसी व्यापक,
उन्नत संरचने का
एक अंशभाग ही
होता है तथा
ऐसे अनेक परस्परावलंबी,
परस्पर संबध्द घटक
व रचना मिलकर यह विश्वरचना हुई
है। इसीलिये अगर
कोई भी नीति एक क्षेत्र मे
या किसी एक
स्तर पर अंमल मे लाई जाती है तो उसका न्यूनाधिक परिणाम अन्य क्षेत्रों व उन्य स्तरों पर
हो सकता है।
इसलिये हमेशा समग्र विचार करना आवश्यक है।
6.2 पूर्ण व्यक्ति
मनुष्य के व्यक्तिमत्व को
शरीर, मन, बुध्दि तथा आत्मा जैसे स्वाभाविक पहलू प्राप्त होते है।
ऐसी हिन्दू जीवन दृष्टि की मान्यता है। इसी कारण मनुष्य कर सुखप्रेरणा को
चार प्रकार के
लक्ष्य प्राप्त होते है। शरीर,
मन, बुध्दि तथा आत्मा के
सुख क्रमानुसार उदर
निर्वाह का निश्चित साधन, शान्ति, ज्ञान व वादात्म्य भाव। इन
चार चीजों से
प्राप्त होता है।
मनुष्य के सुखकल्पने में
भी इन चार
वस्तुओं के मिलने वाला न्यूनाधिक सुख
का समुच्चय अपेक्षित है।
भारतीय चिंतन समग्र विवकेशीलता या
ग्रहीत कृत्य पर
आधारित है। मनुष्य हमेशा उसकी समस्याओं को सभी पहलू उदा: नैतिक,
भावनिक, आर्थिक तथा सामाजिक इ
का विचार करके निर्णय लेता है।
वह केवल आर्थिक विवकेशीलते पर आधारित निर्णय लेता है।
यह पूर्ण सत्य नहीं है।
मनुष्य को इस संसार मे सुखप्राप्ति के
लिये कुछ प्रयत्न तो करना ही
पडेगा। परंतु यह
केवल वैयक्तिक सुख
प्राप्ति की अतिशय उत्कट इच्छा द्वारा मनुष्य को अंधा न बनाये इसकी भी उपाय योजना करनी पडेगी। इसके लिये अपने दर्शन शास्त्र मे एक
पुरूषार्थ पहलू कहा
गया है। वह
है धर्म। अपने अंदर के अनेक गुणावगुण व विकारों को भलीभॉती नियंत्रित करके मानसिक सुव्यवस्था निर्माण करना ही धर्म का
महत्वपूर्ण अंग है।
इस धर्म को
अपने जीवन का
आधार मानकर उसके संसंगत अर्थ व
काम जैसे पुरूषार्थ पक्ष का नियोजन करना तथा मोक्ष प्राप्ति अंतिम लक्ष्य के
लिये प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का संपूर्ण स्वरूप है। यही परिपूर्ण मानव की कल्पना है। यह दृष्टी लगातार सामने लाना पडेगा।
6.3 समष्टि
समष्टि की संकल्पना में
सभी प्रकार के
गट व समूह अन्तर्भूत है।
व्यक्ति, गट
व समूह कर
संबंध जैविक एकात्मते का होता है।
इस कारण से
उनके विविध हितसंबंधो का
परस्परानुकूल मेल बैठ
सकता है।
कुटुंब
%
व्यक्ति व समाज में
जैविक एकात्मते की
प्राथमिक अनुभूति देनेवाला घटक अर्थात कुटुंब है जो हिंदु जीवन दृष्टि की
धारणा है। अपने सुख साधन के
साथ ही समाजधारणा, समाजस्वास्थ्य व समाजविकास के लिये अपने सुस्थित जीवन का उपयोग कर
लेना जैसी दृष्टि देने का भी
प्रयत्न है। महाकवि कालिदास ने गृहस्थाश्रम को
'सर्वोपकारक्षम' कहा
है। कुटुंब से
ही बच्चाें पर
आत्मीयता, परस्पर उत्तारदायित्व, सहभागित्व की
भावना, सहकार तथा सामूहिक जीवन जैसे संस्कार होते रहते है। ये
सारे संस्कार समाजधारणा, स्वास्थ्य, योग-क्षेम व विकास की दृष्टि से व्यक्ति को
जबाबदार नागरिक मे
विकसित करने की
दृष्टि से आज
भी महत्वपूर्ण है।
कुटुंब के जैविक एकात्मते की ओर दुर्लक्ष्य होने के कारण ही
पश्चिम में बच्चे अडचन व वृध्द निरोपयोगी वस्तु माने जाते है।
शहरी संस्कृति के
कारण आज एकत्र कुटुंब व्यवस्था अव्यवस्थित हो
गयी है। उसके अनेक कारण है
आज विचार करते समय किसी भी
व्यवस्था मे यदि
लाया जाता है
तो उस व्यवस्थे को जैविक आत्मीयता का बंधन व
सामाजिकते का अनुभव जैसे संस्कार मे
कभी नही आने
देना चाहिये।
समाज %
समाज के सभी क्रिया कलापों के संबंध में यह ध्यान मे रखना चाहिये कि विकास की
स्वतंत्रता को अबाधित रखकर ही संपूर्ण समाज के संख
की वृध्दि होनी चाहिये तथा वह
होते हुये समाज का शोषण से
मुक्ति व सुखवितरण्ा समानता के
लिये सतत प्रयत्न होना चाहियें। सारी सृष्टि मे और
विशेषत: मनुष्य मे
आंतरिक बंधन होने से मनुष्य को
मिली सुख करी
प्राप्ति गटों मे
वृध्दिंगत होती है।
व्यवहारत: भी किसी व्यक्ति को समाज के सहकार व
सहभाग के बिना सुख की अनुभूति नही होती। अतएवं सुख का आधार परस्परानुकूलता है, संघर्ष नही।
हिंदू जीवन दृष्टि ने
व्यक्ति-समष्टि के
संबंध मे अवयव-अवयवी भाव को
प्रकट करके,
सामंजस्यपूर्ण, सौहार्दपूर्ण समाज व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयत्न किया है। अर्थात इस तत्वत: रचित व्यक्ति-समाजसंबंध मे
जैविक एकात्मते का
भी सातत्य में
होने की आवश्यकता है।
सामान्य मनुष्य के लिये इस एकात्मते की
परिधि कुटुंब व
परिसर समूह के
आगे जाती ही
नही है। उस
व्यक्ति की दृश्इअि मे समाज का
अर्थ उसका परिसर अपनी वस्ती के
लोग जितना ही
होता है उसी
प्रकार उसकी जाति, संप्रदाय व भाषिक समूह जैसा भी सामाजिक बंधन होता है उसका
उसपार के सामाजिक बंधन के ज्ञान के
लिये आवश्यक प्रयत्न की जरूरत है।
हिंदू जीवनदृष्टी की
विशेषता है कि
ऐसे संस्कारो को
विकसित करने के
लिये तथा ऐसी
मानसिकता के लिये यहांकी तात्विक संकल्पना मददगार हो सकती है।
एक बार आपने अवयव-अवयवी की प्रतिमा को स्वीकार किया तब उसी अनुषंग से आवश्यक सहसंवेदना, समसंवेदना, सहकार्य व सामाजिक न्याय की मानसिकता का
निर्माण आवश्यक हो
जाता है। अपने शरीर मे यह
वृत्तिा स्वाभाविक रूप
से विकसित होती है। समाज-शरीर मे इस संस्कार का निर्माण कराना पडता है।
राष्ट्र
%
राष्ट्र का मतलब मुख्यत: लोग होते है
(People are the Nation) राष्ट्र की संकल्पना मे समाज तो
अंतर्भूत है ही
लेकिन उसी के
साथ भूमि व
उस पर की
वस्तुओं का भी
समावेश होता है।
राष्ट्र एक आध्यात्मिक व
भूसांस्कृतिक तत्व है।
राष्ट्र को आत्मतत्व लोग स्वत: देते रहते है। यह
आत्मतत्व दो वस्तुओं, जो वास्तव में
एकही है से
तैयार होता है। उसमे की
एक वस्तु भूतकाल की तथा दूसरी वर्तमानकाल की। भूतकाल वाली तो स्मृतिओं की विरासत होती है तो दूसरी वर्तमान मे एकत्र रहने की इच्छा तथा संयुक्त विरासत से जो भी
प्राप्त हुआ है
उसका अधिकाधिक सदुपयोग करने की उत्कट इच्छा। परिश्रम,
त्याग और निष्टा से जो प्रदीर्घ भूतकाल संपन्न हुआ
रहता है उसी
भूतकाल से मनूष्य का व्यक्तित्व संपन्न होता है, इसी प्रकार राष्ट्र का भी होता है। राष्ट्रवाद के
लिये भूमिविषयक आदर
की भावना आवश्यक है 'राष्ट्र' भावना के लिये वह
देश उन सबों का अपनी मातृभूमि लगनी चाहिये।
संक्षेप मे अपने देश
के विषय मे
उत्कट आदर की
भावना अपने जीवन मूल्य, अपना इतिहास अर्थात,
इतिहास की घटनाओं के बारे मे
व आदर्श राष्ट पुरूषों के संबंध मे अंत:करण
से समान भावना इन सभी के
संमिश्रण से राष्ट्र तैयार होता है।
राष्ट्र भाव का
यह आधार मान्य करना अर्थात सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को
मानना। राष्ट्रवाद तो
सास्कृति होता है
संसार के सभी
राष्ट्र उनकी सास्कृतिक एकात्मते से ही बांधी हुयी है, क्योंकि संस्क्ृति ही
राष्ट्र के गठन
का मुख्य आधार होता है।
अपना राष्ट्र जीवन बाहृत: अनेक पंथोपपंथ, संप्रदाय तथा जाति-उपजातियों अथवा कभी
कभी अनेक राज्यों मे विभक्त हुआ
दिखने के बावजूद उनकी सांस्कृतिक एकात्मता युगों से अविच्छिन्न रही
है। जिस मानव समुदाय का यह
एकात्म प्रवाह रहा
है उन्हे हिंदू के नाम से
संबोधित किया जाता है। इसलिये भारतीय राष्ट्रजीवन ही हिंदू राष्ट्रजीवन है।
हिंदू राष्ट्र का दो
अर्थ निकाला जा
सकता है। एक
हिंदुओं का राष्ट्र और दूसरा हिंदू हों वैसा वह
हिंदू राष्ट्र। दूसरे अर्थ मे हिंदू एक गुणवाचक विशेषण है, इस
हिंदू विशेषनाम को
गुणवाचकत्व, अत्यंत प्राचीन इतिहास,
सुख-दुख के
समान प्रसंग,
अच्छे-बुरे,
श्रेय-हेय निश्चित करने के आधारतत्व, श्रेयस्कर और आदर्श आधारतत्व को अपने जीवन मे उतरवानेवाले महापुरूषों के
प्रति आदर व
अपनेपन की समान भावना तथा इन
महापुरूषों का विरोध करने के विषय मे परत्व,
इन सभी के
समुच्चय से प्राप्त हुआ है। इन
सभी का समुचय का मतलब है
संस्कृति। अत: हिंदू राष्ट्र का पहला अर्थ होगा ' यह संस्कृति, यह मूल्य व
ऐसे विचार माननेवालों का
राष्ट्र' दूसरा अर्थ होगा 'यह संस्कृति, यह मूल्य व
यह विचार माननेवाला राष्ट्र' तत्वत: ये दोनो अर्थ उपयुक्त है
फिर भी पहिला व्यावहारिक दृष्टि से
बहुधा अधिक उपयोगी रहेगा।
यह हिंदू राष्ट्र था
और आज भी
है। हम जब
हिंदू राष्ट्र के
पुनरूत्थान अथवा प्रतिस्थापन की
बात करते है, तब अपने समाजजीवन में इन मूल्यों को अच्छी तरह
प्रतिस्थापित करना है, इसका ऐसा अर्थ अपेक्षित है।
हिंदूत्व का अर्थ है सर्वसाधारण रूप
से हिंदू संस्कृति का मूल्याशय
6.4 सृष्टि
चैतन्य का धागा सर्वत्र समान होने के
कारण अस्तित्व का
छोटे से छोटा घटक भी दूसरे घटको से संबंधित है व विश्व के कारबार में उसका भी
कुछ न कुछ काम है।
अत: विश्व अर्थात परस्पर संबध्द परस्परावलंबी छोटे-बडे सरंचनाओं का
जाल (web
of life) यह हिंदू जीवन दृष्टि की धारणा है।
विविध रचनाओं में परस्परपूरक जैविक संबंध के अनेक उदाहरण हमारे नित्य के अनूभव है।
1) जंगल,
वर्षा व पानी का परस्पर संबंध
2) जल चक्र का आवर्तन
3) तितली/मधुमक्खी व वनस्पति सृष्टि का आपसी संबंध स्त्रीकेशर तथा पुंकेसर का मिलन कराके फलधारणा कराने मे मधुमक्खी, तितली इ की सहायता।
4) मनुष्य/जीवन सुष्टि-वनस्पति परस्पर संबंध-कार्बन आक्साइड व आक्सीजन तथा नाइट्रोजन चक्र का जीवनसाथी लेन-देन।
विविध घटकों मे इस तरह के परस्पर धारण-पोषण करने वाले अनुबंध सब जगह इतनी स्पष्ट अवस्था में अपने ध्यान में भले ही न आते हो परन्तु प्राप्त अनुसंधानो की सहायता से इन संबंधो का यथार्थ ज्ञान होता है। इस प्रकार मानव व श्रृष्टि मे जैविक संबंध है व विकास के संबंध मे इसी दृष्टि के द्वारा पर्यावरण व मानवेतर सृष्टि का भी एकात्मिक विचार करना चाहिये यह भी स्पष्ट है।
6.5 धर्म:
धर्म का अर्थ समाजधारणा के उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है।धर्म का कर्तव्य, उपासना पध्दति, अंगभूत गुणधर्म जैसे अर्थो में भी प्रत्यक्ष व्यवहार मे उल्लेख होता रहता है। अपनी दृष्टि मे व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार के नियमाक तत्व ही धर्म है। धर्म का मतलब समाज घटको के धारण मरण, पोषण जैसे संबंधो के नियामक तत्व व नैतिक अंकुश होता है। इस संबंध मे याज्ञवलय स्मृति कर स्पष्ट मार्गदर्शन है ''अर्थशास्त्रात्ताु वलवद् धर्मशास्त्रभिति स्थिति;'' अर्थशास्त्र की अपेक्षा धर्मशास्त्र अधिक महत्व का है। वेदव्यास कहते है कि ''धमादर्शस्च कामश्च स धर्मम् कि न सेव्यते'' धर्म से ही सुयोग्य अर्थ व काम की प्राप्ति होती है, फिर धर्मपालन क्यों नही करते है? अर्थ व काम मान्य है, उसका विरोध नही है लेकिन ये सारे व्यवहार धर्म की मर्यादा मे होने चाहिये और तभी सच्चा सुख मिलेगा। वास्तव मे धर्म, अर्थ व काम इन सभी का संतूलित विचार होना चाहिये। इस पर मनुस्मृति का कहना है '' धर्मार्थकामा; सम एव सेव्यका:''। य: एक सेवी स नरो जघन्य:॥ मनुष्य को धर्म, अर्थ तथा काम का संतुलित सेवन करना चाहिये, जो केवल एक के पीछे लगता है वह बहुत बडी भूल करता है।
(WRITER: NOT KNOWN)
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