बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०१६

EKTMA MANAV DARSHAN MUL SUTRA 3



7          अन्य िशेषताएँ

7.1       जीवन का तत्वज्ञान

अपनी संस्कृति के अनुूसार परमार्थिक साधना तथा प्रत्यक्ष जीवन व्यवहार मे अंतर अथवा विभाजन नहीं होना चाहिये बल्कि इनका एक दूसरे को सहायक होने वाले जीवन के दो अंग होने की, अपनी धारणा है। विविध व्यवस्था, संस्कार कर्तव्य पालन का दर्शन द्वारा इस अनुभूति को देनेवाला संस्कार रोपित करने का प्रयत्न किया जाता है।

7.2       संस्थीकरण

प्राचीन व्यवस्था - यंत्रणा के युगानुकूल स्थापन के संदर्भ में एक और समाजशास्त्रीय सत्य ध्यान मे रखना मे रखना पडता हैं। आदर्श कितना भी उदात्ता क्यों हुआ, उसके सातत्यपूर्ण, जोमदार, उपाययोजना द्वारा जबतक संस्थात्मक (Institutional) स्वरूप नही प्राप्त होता, आचरण मे नहीं लाया जा सकता।

संकलात्मक विचारों का समयानुसार दिग्दर्शन कार्यान्वयन हो सामाजिक संस्थीकरण होता है। लेकिन इस संस्थीकरण कार्यान्वयन को प्राणभूत चैतन्य का आशय मूल सैध्दान्तिक संदर्भ से मिलता रहता है। संस्था कितनी भी आदर्शरूप क्यों हो अपनी सतत अपरिवर्तन के कारण भ्रष्ट होती है जो समाज के गतिशास्त्र का एक सत्य है। इस कारण आदर्श संस्था मे भी समयानुसाार परिवर्तन आवश्यक है। ‘‘old order changeth, yielding place to new, test one good custom corrupt the whole world.” इस सूत्र की दूसरी लकीर अधिक महत्व की है।

7.3       एकस्थितिपना नही बल्कि प्रगत्म आध्यात्म्कि दृष्टि भनीबियों अनुभूतियों की तरह मनुष्य के अंतर मे ही अंतिम सत्य होने के कारण उस सत्य के पास ले जाने के लिये कोई प्रषित नही है। प्रेषितों के द्वारा ईश्वर से नाता जुड सकता है, यह कल्पना नही तथा मानव ईश्वर मे द्वंद्व भी नही है। मानव ईश्वर का अंश है यही श्रध्दा है। इस तत्व की अनुभूति स्वत: मे लाना ही साक्षत्कार की अंतिम संकल्पना है परन्तु इस संबंध की क्षमता व्यक्ति-व्यक्ति में विविध स्तरों पर हो सकती है। परिणामत: इस अंतिम साक्षात्कार की प्राप्ति के भी अनेक मार्ग हो सकते है यह सिध्दान्त अटल है। ज्ञान, कर्म, भक्ति तथा योग जैसे मार्ग इसीसे संबंधित है। परन्तु इस अथवा किसी भी मार्ग का अनुसरण करने पर भी एकही सत्य की प्रचीति होती है ( एकं सत् विप्रा: बहुधा पदन्ति।-ऋग्वेद 1.194.41) यह अनेको की अनुभूति से दृढमूल हुई जीवन श्रध्दा है।

7.4       अनेकांत
            जैन चिंतन का अनेकान्तवाद इस संसार की ओर देखने का दृष्टिकोण है। अहिंसा के इस मूलभूत प्रेरणा से अनेकान्तवाद का जन्म होता है। अहिंसा का मतलब केवल हत्या करना ही नहीं बल्कि दूसरे जीवों पर प्रेम करना मन उदार करना है। अत: बौध्दिक स्तर पर अहिंसा अथवा भिन्नमत सहिष्णुता ही अनेकान्तवाद है। उसी प्रकार किसी भी प्रश्न के संबंध मे एकान्तिक रूप् ेमत बनाना ही महत्वपूर्ण भाग है। सामाजिक सहजीवन, सहविचार, सम्यक विचार तथा समग्रविचार की दृष्टि से यह दृष्टिकोण अतिशय महत्व का है। आध्यात्मिक घरातल पर इसी प्रगत्मता का उल्लेख ऊपर हुआ है।

7.5       ऋण कल्पना
            ऋण कल्पना हिन्दू जीवन दृष्टि मे महत्वपूर्ण है। यह ऋण व्यक्ति को जन्मत: प्राप्त हुयी मानी जाती है। ऋण उतारने के करार की भूमिका जैसा भाव यहॉ अभिप्रेत नही है फिर भी अंगभूत- स्वाभाविक तथा अत्मौपम्य बुध्दि से आने वाली कृतज्ञता नैतिक जिम्मेदारी का आशय इसमें है। पितृऋण से सामाजिक सातत्य जीवनधारणा, आचार्यऋण से वैयक्तिक सामूहिक चिंतन, ज्ञान साधना ज्ञान की अगली पीढी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी, देवऋण से परमार्थिक सफलतायुक्त संदर्भ 'सर्वभूतहितेरता' जैसे मूल्यवान कर्तव्य अपेक्षित है।

            सामाजिक/राष्ट्रीय चारित्र्य के भाव को विकसित होने के लिये समाजऋण की संकल्पना का व्यापकस्वरूप में विकसित होना आवश्यक है।

            इस ऋण कल्पना के कारण ही सामाजिक व्यवहार में अपना जोर हक्क प्रवणते पर होकर कर्तव्य प्रवणते पर है। यह कर्तव्यभावना आत्मौपम्य बुध्दि पर आधारित समरसते की भावना है।(कौटुंबिक संबंधो मे जैसी कर्तव्य-भावना होती है)

(8)        एकात्म मानवदर्शन के मार्गदर्शक सूत्र
8.1       व्यक्ति-समाज-एकात्मता

मनुष्य के जीवन के लिये वैयक्तिक सामाजिक ऐसे दो परिमाण होते है। मनुष्य के मन में आत्मीय ज्ञान की परिघि व्यापक होती जाती है अस्तित्वके व्यापक उन्नत धरातल से एकरूप होने का लगाव मनुष्य के अंदर पैदा होता है इस लिये मानवी जीवन के कुटुंब, परिसर समूह, विविध गट बंधन समाज इन सभी मे त्मीयता रहती है। त्मीयता का सतत संस्कार करते हुये सामाजिक एकता, समता तथा समरसता का परिपोषण करना आवश्यक है मानव-मानव में भेद करने वाली, भेद डालनेवाली कल्पना अथवा कृति से कडाई के साथ दूर रहना आवश्यक है।
8.2       मानव -मानवेतर सृष्टि की एकात्मता
            मनुष्य की आत्मीन भावना का निसर्ग तक विकसित होना स्वाभाविक ही है। मानव में प्राप्त चैतन्य का अंश ही प्रकृति की विविध इकाइयों मे उपस्थित है इस कारण सृष्टि में मूलत: जड ऐसा कुछ भी नही है इसके विपरीत मानव तो इस सृष्टि व्यापार का एक अंश है। इसी कारण से ही मानव निसर्ग मे जैविक एकात्मता है। यह भावना समाज मे सर्वदा रही है तथा इसका उपयोग पर्यावरण के संरक्षण के लिये होगा।

8.3       सुख
            मानव की सभी क्रियाओं का उद्देश सुखप्राप्ति है। सुख आत्मनिष्ठ है, वस्तुनिष्ठ नहीं केवल वस्तु सुख नही दे सकता। मानव की भाव भावना का सुख से निकट संबंध है।
            स्ुख वासना इच्छा के बढते जाने में नही वह तो उन्नत सुख साधनों के द्वारा निम्न स्तर की वासना के इच्छाओं को कम-कम होते जाने की मानसिकता पर आधारित है।
            हिंदू चिंतन भौतिक सुख की प्रबल इच्छा करे शास्त्रभाका मानता है लेकिन उसी मे अटक नही जाता। हिंदू चिंतन ने सुख की व्यापक कल्पना की है। अन्न, वस्त्र, आश्रय, औषधि तथा शिक्षण वगैरह की व्यवस्था आवश्यक है, किन्तु संपूर्ण नही।
            मनुष्य को शारिरिक सुख के साथ ही मन, बुध्दि आत्मा के सुख की भी आवश्यकता है। शरीर, मन, बुध्दि आत्मा का सुख भी क्रमश; उदरनिर्वाह के निश्चित साधन, शान्ति, ज्ञान वादात्म्य भाव जैसे चार वस्तुओ से प्राप्त होता है ,ऐसी मान्यता है इसी लिये उसकी सुखकल्पनाओं मे इन चारों परिमाणों का न्यूनाधिक समुचय अपेक्षित है।

            हिंदू चिंतन 'सर्वभूतहिते रत:' का उद्देश सामने रखकर 'सब को सब प्रकार का सुख' ही अपना केन्द्रीय उद्दिष्ट की घोषणा करता है। उस ने समग्र-समन्वित-एकात्मिक सुख को ही स्वीकार किया है।
8.4       त्याग
            हिंदू जीवन दृष्टि मे व्यक्ति से लेकर परमेष्टि तक अखंड वर्घिष्णू मंडलाकार (spiral) जैसी विकसित होते जाने वाली परिमाणोंकी तथा उनके अनुषंग से मनुष्य के जानकारी के विकास की संकल्पना है। व्यक्ति के ज्ञान का स्वाभाविक रूप से अथवा संस्कारो से विकसित होते हुये समष्टि के स्तर तक यदि गमन हुआ तो व्यक्ति कर उन्नपन होकर समाज के लिये जीवन जीने समर्पित होने की कृति स्वाभाविक रूप से हो सकी है। जब जब वैयक्तिक उद्देश सामाजिक उद्देश जैसा द्वंद्व निर्माण होगा तब तब 'ऐसा मनुष्य' सामाजिक उद्देश को प्रधानता देगा। कुछ व्यक्तियो के लिये तो व्यक्तिगत अभिलाषा जैसा कुछ भी शेष नही रहता। इस कारण सामाजिक कार्यो के लिये जीवना आवश्यकता पडने पर समर्पण भी करने मे वह व्यक्ति जीवन की सफलता मानता है। व्यापक होत जानेवाले बोध का वह अटल परिपाक है। यह बोध अन्य जीवनदृष्टि तक भी व्यापक हो सकता है। यह शिबि राजा के उदाहरण मे दिखाई पडता है। व्यक्ति समाज के लिये क्यों समर्पण करता है, इसका एकमेव उत्तार-आध्यात्मिक अधिष्ठानो द्वारा विकसित होने वाली आत्मौपम्य बुध्दि ही है। स्वार्थवादी पश्चिमी जीवनदृष्टि में इसकी समानता का कोई उत्तार नही है।
8.5       पर्यावरण स्नेह संयमित दोहन
            मानव निसर्ग का आपस मे जैविक एकात्मता है, इसीलिये अपनी संस्कृति मे निसर्ग की पुनर्निमाण की प्रकृयाचक्र बाधित हो, नैसर्गिक पर्यावरण की धारणक्षमता बडे ऐसे तरीके से नैसर्गिक संसाधन के उपयोग करने की संयमित दोहन की भूमिका है, शोषण की नही।
8.6       संयमित जीवन
            अपना जीवन दर्शन सामान्य मनुष्य के सहज प्रवृत्तिा को नकारता नही। उपभोग की इच्छा प्रचंड शक्तिशाली है। निवृत्तिा की बडी बडी बातें करनेवाले बडे बडे ऋषी - मुनी भी कसोटी का समय आने पर इन इच्छाओं को रोक नही सके, फिर सामान्यजनों का क्या कहना? इससे संबंधित अनेक संस्कृत अवतरण आपको मालूम होंगेही। 'मनुष्यणां वृत्तिारर्थ:' (कौटिल्य) अथवा '' बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांसामपि कर्पति।'' (व्यास) इस जैसे विचारवालो ने अपने उद्गारो से इस सत्य स्थिति को मान्य किया है।
            हमारे प्राचीन ऋषी - मुनी तत्ववेत्ताा थे। मनुष्य अपनी सहजवृत्तिा का एकदम विरोध करे, अपनी इच्छा आकांक्षा को मारता रहे ऐसा उन्होने कभी नही कहा। इस ऐहिक सुख के पीछे भागते हुये मनुष्य को संयम बरतने के लिये कहते रहे है। मांसभक्षणे दोषो मद्ये नच मैथुने। प्रवृत्तिारेषां भूतानां निवृत्तिास्तु महा फला॥
            मनुष्य स्वकेंद्रित स्वार्थी होता है। केवल अपने सुख के पीछे भागता है यह सत्य है। परन्तु उसको प्राचीनो ने उत्ताम पुरूष नही माना। यह तो सत्य ही है कि मनुष्य एक प्राणी है, फिर भी उसे इस स्तर के ऊपर जाकर दूसरों के लिये अपने कर्तव्यों जिम्मेदारी पर विचार करना चाहिये इतना ही नही बल्कि मै कौन हुँ? कहॉ से आया ? तथा कहा जाना है? ऐसे प्रश्नो पर आत्मशोध करना चाहिये, ऐसी उन की मान्यता थी।
8.7       उपभोग
            मनुष्य जीवन मे उचित उपभोग को स्थान दिया गया है, परन्तु सामान्य मनुष्य स्वकेंद्रित है, स्वार्थी है, उपभोग के पीछे भागता रहता है, इसे मान्य करके ही अपने पूर्वजों ने उस वास्तविकता को कभी भी जीवनमूल्यो का अथवा व्यावहारिक चतुराई तथा सदसद् विवके का स्थान नहीं दिया। उसी तरह उपभोग मे दूसरों को भी सम्मिलित करने का निर्देश दिया। उद. '' केवलाघो भवति केवलादि।'' जो अकेला उपभोग करता है वह पापी है।
            उपभोग के अतिरेक के कारण केवल व्यक्तिश: आपही असुंतष्ट अतृप्त नही रहते बल्कि संपूर्ण निसर्ग का संतुलन बिगाड कर आप पृथ्वी पर के जीवन को ही धोखे मे डाल रहे है. इसकी परिणामकारक समस्त केवल कायदा बनाने से नहीं होगी।
            भोगवाद का दुष्परिणाम केवल बात करने ये नही मिटाया जा सकता। सामाजिक जिम्मेदारी की (धर्म की) चौकट मे बैटनेवाली अर्थात् संयत उपभोग करने मे केवल समाज का ही नही बल्कि उपभोक्ता का भी अंतिम हित कहॉ है इसका शिक्षण संस्कारोंके द्वारा इसे दृढता के साथ कार्यान्वित करने की आवश्यकता है।
8.8       स्वायत्ता व्यवस्था पर विचार
            मनुष्य के/व्यक्ति के जीवन के लिये वैयक्तिक सामाजिक जैसे दो मापदंड प्राप्त होने से इस सामाजिकता किसी भी जीवन दृष्टि मे विचार करना महत्वपूर्ण होता है। हिंदू जीवन दृष्टि मे भी व्यक्ति के जीवन व्यवहार को अनुकूलता, सुलभता सफलता की प्राप्ति कराने के लिये सामाजिक यंत्रणा व्यवस्था जैसे माध्यमों का विचार करना पडा है।
            आश्रम व्यवस्था, पुरूषार्थसंकेतो नीति सूत्रों ऋण कल्पना जैसे संभो मे व्यक्ति के जीवन के लिये अनिवार्य सामाजिक संदर्भ उपस्थित है। उनमें व्यक्ति की समाज के प्रति अपेक्षित जिम्मेदारी की समझ व्यक्त होती है। हिंदू जीवनदृष्टि की विकसित हुई सामाजिक यंत्रणा व्यवस्था मे व्यक्ति को अपने कल्पनानुसार जीवन व्यतीत करते हुये साफल्य प्राप्त करने के लिये सहायक होने की समझ भी अनुस्यूत है। इसी के अनुषंग से धर्मोपासना क्षेत्र, राज्यसंस्था, शिक्षण व्यवस्था, अर्थव्यवस्था (उद्योग-व्यापार) . तथा कलाक्षेत्र जैसी विविध स्वायत्ता क्षेत्रों का विकास हुआ है।
            इस प्रकार की सभी व्यवस्था यंत्रणा को समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार विकसित कराये, कालबाहय हुई व्यवस्थाओं का त्याग कराके नई युगानुकूल व्यवस्थाओं का निर्माण कराये। यहॉ पर एक प्राथमिक संकेत था।
            उसी प्रकार जीवनदृष्टि की सभी रचनाओं मे तथा सभी घटकों मे एकात्मते पर जोर होने के कारण इन सभी मानव निर्मित यंत्राणा रचनाओं मे भी एकात्म संबंध होना चाहिये। यह भी धारणा थी। इसकी प्रत्येक यंत्रण्ाा को स्वायत्ता स्वयंपूर्ण होना चाहिये। साथ साथ उसे जीवन क्षेत्र की सभी यंत्राणाओं से परस्परपूरक तथा परस्परसंबध्द होना चाहिये। इन विविध समाजयंत्रणाआें का एक विशाल जाल होना चाहिये उनके द्वारा सामूहिकता एकात्मते की समाजधारणा होनी चाहिये। योगक्षेम चलाये जायें, स्वास्थ्य का संभाल हो विकास हो। यही इसके पीछे की कल्पना थी।
            मनुष्य के चतुर्विध शरीर, मन, बुध्दि आत्मा से युक्त व्यक्तित्व के विकास की जरूरत पूरी करने वाला सामूहिक माध्यम जैसा इस क्षेत्र का स्वरूप होने कारण, मनुष्य के ऊपर कहे गये चारों अंगो का संतुलन साधने वाली हिंदू जीवन दृष्टि ने इनमे से किसी एक क्षेत्र पर अतिरिक्त जोर नही दिया है।
8.9       आश्रम व्यवस्था
            आश्रम व्यवस्था मानवी व्यक्तित्व के परिपूर्ण विकास की योजना है। मनुष्य जीवन की चार क्रमिक अवस्थाओंमे से, उसअवस्था ध्यान मे रखकर विकसित की गयी संस्कार प्रणाली द्वारा ऐसे व्यक्तित्व का विकास हो इसकी अपेक्षा थी।
            ब्रह्मचर्याश्रम में व्यक्ति को अपने भविष्य के जीवन के लिये लौकिक पारमार्थिक व्यवहारो के लेन देन मे पाथेय के रूप मे उपयुक्त साबित होने जैसी स्वयंकी शारिरिक, मानसिक, बौध्दिक तथा आत्मिक तैयारी के लिये प्रयत्न करे। इस दृष्टि से शारिरिक क्षमता बढाने का प्रयत्न, आरोग्य संपादन गुण संवर्धन करके जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र के लिये सक्षमता प्राप्त करलें ऐसी कल्पना थी।
            ब्रह्मचर्या आश्रम में प्राप्त हुई गुणसंपदा का प्रत्यक्ष उपयोग गुहस्थाश्रम मे प्रवेश करके करें, धर्म मर्यादा मे रहकर ऐहिक सांसारिक जीवन का समर्थ, समृध्द तथा सुंदर अनुभव ले सामाजिक जीवन का भेरूदंड बनकर समाज स्वास्थ्य के लिये स्थिरता सातत्य प्राप्त कराये। यह पारंपारिक कर्तव्यसंकेत गृहस्थाश्रम की संकल्पना मे है।
            संसार से मुक्त, संसार में कर्तापन की जिम्मेदारी को अगली पीढी के हाथ मे सहजरूप से देदें अपने परिपक्व व्यक्तित्व को सामाजिक कार्यो मे लगा दे। इस तरह की मुख्य मुख्य गुणवान बातों का समावेश इस बानप्रस्थ आश्रम की कल्पना मे है।

            आज के सामाजिक जीवन मे संन्यास आश्रम के लिये भगवा वस्त्र धारण करके जंग लमे जाने की ना ही संभावना है ना तो आवश्यकताही है, लेकिन घर से बाहर निकल कर अथवा घर मे रहते हुये निरपेक्ष नि:संग मन से किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक कार्य में स्वयंको निमग्न रखना ही सन्यास का आधुनिक मतलब हो सकता है।
(WRITER: NOT KNOWN)

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा