बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०१६

EKTMA MANAV DARSHAN MUL SUTRA 4



(9)        व्यवहार
9.1       अपना राष्ट्रीय ध्येय
आज के संदर्भ में समाज को अपने सांस्कृतिक तत्वों के आधार पर संघटित करें। सभी व्यक्तियों के न्याय, सम्मान आवश्यकता को ध्यान मे रखकर विकास के लिये अनुकूल मानसिकता सामाजिक वातावरण के साथ ही साथ अवसर मिले। ऐसी समता समरसतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था का पालन पोषण किया जाये। इस प्रकार राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में जन चेतना के द्वारा शक्ति समृद्वि को उत्पन्न करायें।

अपने राष्ट्रीय ध्येय को हम अपने राष्ट्रीय जीवन दर्शन के आधार पर साध्य कर सके, वही हमें अपार प्रेरणा देगा। अपने तत्वों के आधार पर ही राष्ट्र पुननिर्माण हो सकेगा। केवल परायों की नकल करके हम जहान मे हमेशा दूसरे दर्जे पर ही रहेंगे तथा कभी कभी अपयशी भी हो सकते है।
9.2       राष्ट्रीय प्रयत्नो की दिशा
राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त करने के लिये देशभर मे '' राष्ट्रीय परम वैभव '' को सबके चिन्तन का, मानस का प्रयत्नों का केन्द्र बिंदु बनाना चाहिये। इसके लिये पडे वह त्याग पडे वह काम पूरी शक्ति तथा बुध्दि से करने के लिये बडे छोटे सभी में एक उत्कट इच्छा होनी चाहिये।
  राष्ट्रीय परम वैभव के लिये आवश्यक सामाजिक, आर्थिक मानसिक परिवर्तन करने का वातावरण तैयार होना चाहिये। इसके लिये आपको एकबार फिर से राष्ट्रीय आत्मविश्वास को जगाना पडेगा।
9.3       युगानुकूल परिवर्तन                 
कालप्रवाह में अपनी जीवनदृष्टि के व्यवहार मे जो त्रुटि निर्माण हुयी अथवा जो हीन मिश्रित हुआ, उन सबको निकालकार फेंक देने का हमारा प्रयत्न होना चाहिये। इसके अतिरिक्त पारंपरिक जीवन दृष्टि फिर से प्रस्थापित करने का यह अर्थ नही है कि सारा कुछ जो पुराना है असको ग्राहय मानकर स्वीकारना। इस संदर्भ मे श्री गुरूजी का किया हुआ सुस्पष्ट मार्गदर्शन हमेशा अपनी नजर के सामने रखना चाहिये। वे कहते है। 'परिवर्तन समाज की प्रगति के प्रोत्साहक आवश्यक है' पुरानी व्यवस्थाआें का लय हो रहा है। इसलिये आसू बहाने की जरूरत नही है तथा नयी रचनाओं को स्वीकार करने में हिचकिचाहट की भी आवश्यकता नही। केवल ऐसा करते समय अपनी परंपरा से विकसित अपने समाज के चैतन्ययुक्त अंतस्तत्वों का पोषण हो रहा है कि नही, इसकी चिंता करनी चाहिये।
           
9.4       विकास
विकाय की कसौटी केवल प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय उत्पन्न नही हो सकती। विकास का विचार करते समय प्रथम ध्येयनिश्चिति तथा उसे साध्य करने के लिये उचित मार्ग का  (चुनाव) महत्वपूर्ण है। अत: ध्येयमार्ग परकी समतोल प्रगति को ही विकास ऐसा माना जा सकता है। भारतीय चिंतन मे व्यक्ति के बारे मे पुरूषार्थ का संकेत है। इस संकल्पना में '' मनुष्यमात्र जो पाने की इच्छा करता है, उसके लिये प्रयत्न करता है '' वह सब ऐसा भाव है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चतुर्विध पुरूषार्थ का अर्थात् प्राप्त्यर्थ के मार्ग पर संतुलित प्रवास ही मनुष्य का विकास है। राष्ट्रीय विकास के संदर्भ मे सभी समाजघटकों के कल्याण का सुखी जीवन के विचार के साथही सुरक्षा तथा पर्यावरण के बारे में जागरूकता जैसे सर्वांगीण सोच को ही सम्यक विकास कहा जा सकता है।
9.5       साधनों का स्वामित्व
अपने को उपलब्ध हुये होने वाले सभी साधनों का सही स्वामित्व ईश्वर का ही है, ऐसा अपना जीवनतसूत्र है। भारतीय चिंतन के अनुसार अपने पास केवल दुय्यम अथवा हस्तांतरित विश्वस्त स्वरूप का स्वामित्व है।
    ईशोपनिषद का प्रसिध्द श्लोक है ''ईशावास्यनिदम् सर्वं यत्किचम जगत्यान् जगत्। तेन व्यक्तेन भुंजीथा मा गृघ; कस्यचिद् धनम्॥ तुलसीदास ने रामचरितमानस मे कहा है'' सियाराममय सब जग जानी ''किंवा मं. गांधी, द्वारा प्रस्तूत विश्वस्तवृत्तिा अथवा विनोबाजी
'' सबै भूमि गोपाल की'' जैसे कथन यही दर्शाते है। हम यदि यह भाव रख सके तो दूसरों को कुछ देते समय दुख नही होगा अथवा कम दुख होगा लेने समय 'प्रसाद' का भाव हो सकता है।
     व्यक्ति को अपनी और परिवार की आवश्यकताओं के साथ साथ सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिये संपत्तिा के अधिकार का आश्वासन दिया जा सकता है। संपत्तिा का अधिकार मर्यादित होना चाहिये अर्थात् सुखोपभोगों की निश्चित सीमा के अंदर परिपूर्ण करलेने की स्वतंत्रता के साथ साथ समाज के दूसरे सदस्यो की आवश्यकता पूर्ण करने की जिम्मेदारी भी व्यक्ति को स्वीकारना आवश्यक है।
9.6       स्वधर्म
समाज के धारण पोषण के लिये व्यक्ति से करवाने योग्य 'नियतकर्म' ही व्यक्ति अथवा समूह का 'स्वधर्म' है यह अपनी परंपरा रही है।
        हम जो काम करते रहे है, वह जीने के लिये दी जाने वाली कीमत होकर समाजधारणा के लिये आवश्यक लाभदायक स्वधर्म है। ऐसी व्याख्या को पुन:प्रस्तुत करना ही आज के समाज को योग्य जीवन दृष्टि देने के लिये आवश्यक है। अपने काम के प्रति अनिवार्य बुराई (necessary evil ) की वृत्तिा बदलकर अपना काम तो अपने जीवन के हेतु की परिपूर्ति ( Fulfilment) है तथा वह समाजधारणा के लिये आवश्यक स्वधर्म है, ऐसे दृष्टिकोण को पुन: प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। कुटुंब, शिक्षणसंस्था उपासना संस्था तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं को इस दृष्टिकोण को दृढ करने के कार्यक्रम के लिये मरसक पराक्रम करना चाहिये। ''स्वधर्म निधनं श्रेय:'', ''नियतं कुरू कर्म त्वम् अथवा ''वर्त एवच कर्मणि'' इन जैसे भगवद्गीता के वचनानुसार और ''तया सर्वत्मका ईश्वरा, स्वकर्म कुसुमांची वीरा, पूजा केली होय अपारा तोषलागी'' किंवा ''विश्व स्वधर्मसूर्ये पाहो'' इन जैसे संत ज्ञानेश्वर के बचनों का उचित अंतर्भाव संस्कारों शिक्षण में स्थापित करना चाहिये।
9.7       समता, समरसता
            प्रत्येक व्यक्ति मे भिन्नता होकर भी समानता पाई जाती है। इन दोनो ही गुणो का ऐसा संतुलित मेल कराना पडेगा कि जिसके कारण व्यक्ति का विकास हो परंतु वह विकास सामूहिक जीवन के हित का विरोधी हो। इसके लिये एकात्मता के अधिष्ठानाें पर स्वार्थरहित, संग्रहविरहित समाज समर्पित व्यक्तियों को विकाय करते हुये उन सभी व्यक्तियों मे ऐसे भाव जागृत हो कि मानव समुदाय का जीवन एकही प्रकार के अस्तित्व से बना हुआ है तथा समाज की सुखी उत्कर्षमय अवस्था का निर्माण करने का प्रयत्न ही हम सभी का कर्तव्य है।
9.8       संतुलित अर्थरचना
            हमे संतुलित चिंतन संतुलित रचना पर आधारित ऐसे संतुलन का शोध करना चाहिये, जो व्यक्तिगत अभिरूचि उपक्रम शीलता को कायम रखे। साथ साथ उत्पादन क्षमता उत्पादकता को सतत वृद्विंगत रखे आवश्यक उत्पादन होता रहे उत्पादित संपत्तिा का न्यायपूर्ण वितरण भी लगातार होता रहे। उसी प्रकार वर्तमान परिस्थितिओं मे व्यक्ति मे उत्पादन का उत्साह भी बनाये रखे और इसके लिये विकेंद्रीकरण की यथायोग्य प्रणाली का होना भी आवश्यक है। इस उद्देश की प्राप्ति के लिये हमें व्यक्ति पर अंकुश लगाना पडेगा। व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का इतना संकुचित अर्थ नही लगाना पडेगा कि जिससे समाजहित की हानि हो। संपत्तिा का संचय उपभोग संबंधी व्यक्तिगत स्वतंत्रता आवश्यक बंधनो से इस प्रकार मर्यादित करना पडेगा कि जिससे समाज के बाकी बचे हुये लोगों की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगाी उसी प्रकार संपन्न तथा सुखी भौतिक जीवन का समान अवसर सभी को उपलब्ध होगा।
युगानुकूल धर्मसुधारण
धर्म ही सामाजिक जीवन का नियामक तत्व है। उसका शाश्वत भाग उदा. आत्मौपम्यता तथा मूल्य .भाग हमेशा से मार्गदर्शक रहा है, लेकिन इस शाश्वत भाग की अभिव्यक्ति देश, काल परिस्थिति के सुसंगत होना पडता है। इस कालसुसंगत रचनाओं को प्रस्थापित करनेवाले शास्त्रग्रंथो को स्मृति कहा जाता है। इन स्मृतिओं में आज की परिस्थितिओं के अनुकूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

प्राचीनकाल मे राजसत्ता के ऊपर धर्म सत्ता का नैतिक बंधन होने के कारण राजसत्ताा मनमानी नहीं कर सकता था। तथा उसकी लोकाभिमुखता बनी रहती थी। सत्ताधारिओं पर ऐसे नैतिक बंधन आज भी आवश्यक है। इसके लिये आचार्य विनोबा भावे द्वारा प्रस्तावित '' आचार्यकुल'' जैसी संस्थाओं का विचार किया जाना चाहिये।

वर्तमान समय में संविधान ही राजकीय क्षेत्र के लिये स्मृति माना जाना चाहिये। उसमे नये प्रश्नों को हल करने के लिये बदलाव किया गया है और आवश्यकतानुसार आगे भी होगा। अन्य क्षेत्रों के लिये भी नयी कालसुसंगत स्मृतिओं का निर्माण करना पडेगा।

सामाजिक दोष निकालना आवश्यक
धर्मोपासना को सार्थक होने के लिये परंपरा से उसमे घुसे हुये अनावश्यक निर्जीव कर्मकांड, वाह्य शिष्टाचारों का आडंबर, पंथीय अहंकार, दिखाऊ उत्सवी स्वरूप, अंधश्रध्दा, सामाजिक श्रध्दे का बाजार लगाने की मतलबी प्रवृत्तिा, उपासना सामाजिक नीतिओं की हुई अपहेलना दोषो को समाप्त करने के लिये सतत प्रयत्न किया जाना चाहिये साथ ही उपासना मार्ग का व्यवहार्य, सुलभ मूल्यानुसारी शुध्दीकरण भी होना चाहिये।

हिंदू धर्म हिंदू धर्मीय लोगों पर जब अन्य कट्टर धर्मीयों द्वारा धर्म के नाम पर आक्रमण शुरू हुआ तब हिंदू धर्म के दार्शनिकों द्वारा कालानुरूप धर्मरक्षण स्वधर्मीयो कां जुल्म जबरदस्ती से हो रहे धर्म परिवर्तन रोकने की कोई व्यवहार्य उचित उपाय तथा किसी सिध्दांत का भली भॉति नियोजन नहीं किया गया।

इस संकट के स्वरूप का अच्छी तरह से आकलन होने के कारण इसके लिये योग्य प्रयत्न होने से, नये कर्मकाण्ड तथा नये उपचारों की अयोग्य प्रशंसा के साथ नये विधिनिषेधों की मूर्खता जैसे अकरणीय उपायों के कारण हिंदू धर्म तिरस्कृत होता गया। वस्तुत: जुल्म जबरदस्ती प्रलोभन के कारण दूसरे धर्मों मे गये हुये लोगों को वापस हिंदू धर्म मे लाने का, उन्हे फिर से समाज व्यवस्था मे सम्मान पूर्वक बैठाने के व्यापक प्रयत्न को सामाजिक स्तर पर किया जाना चाहिये था। इस दृष्टि से मुस्लिम आक्रमण के प्रारंभिक काल में देवल स्मृति, गोवा के ब्राह्यणों द्वारा अनुसरित व्यवहार्य सुलभ ऐसा शुध्दीकरण का उपाय अथवा शिवछत्रपति द्वारा किया गया शुध्दीकरण्ा का प्रयोग यदि अपवादात्मक होकर सार्वत्रिक नियम बना होता तो आज हिंदू धर्म पर जो धर्मांतर के संकट का वज्रपात हुआ है उससे बचाव संभव था।

धर्मांतरितों के व्यापक परावर्तन के साथ आग्रही प्रसरणशीलता का अवलंबन आवश्यक है।

वैश्विक ध्येयव्रत
' कृण्वंतो विश्वमार्यम्' (मनुष्यमात्र का उन्नयन) यह हमारा जागतिक ध्येय रहा है।

सर्वोपि सुखिन: सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया: सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात॥ सब लोग सुखी होकर निरामय जीवन जिये सब का कल्याण हो, किसी को दु: हो।

विश्वशान्ति तथा विश्वकल्याण के मार्ग पर चलते समय आज की परिस्थिति में संपूर्ण मानव जाति को एक कुटुंब के स्वरूप मे मानकर व्यवहार करने का मार्ग ढूंढना चाहिये। इसके लिये यह आवश्यक है कि राष्ट्रो का विनाश करके उन्हे अपनी श्रेष्ठ विशिष्टताओं से युक्त जीवन का विकास करने दें, इस विकास के लिये सभी राष्ट्रो को एक दूसरे का सहायक बनायें और ऐहिक जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सभी राष्ट्रो को एक दूसरे के मरण पोषण मे सहायक बनाये सभी लोगो को इस एक कुटुंब की भावना को योग्य घरातल समझकर व्यवहार करें। इसके लिये भारतीय तत्वज्ञान आधुनिक विज्ञान के सुंदर मिलन को सामने लाया जाना चाहिये।

धर्म, अर्थ तथा काम सुसंगत पुरूषार्थ अंग है उनकी एकत्रित साधना से मानव जीवन सार्थक होगा उनकी अंतिम ध्येयप्राप्ति होगी, ऐसा समझना भारतीय परंपरानुसार चलनेवालोंका इतिहासदत्ता कर्तव्य है।

पूंजीवाद, समाजवाद, कम्युनिज्म जैसी प्रमुख विचारप्रणाली मनुष्य के अनेक समस्याओं को हल करने मे असफल रही है। इतना ही नही बल्कि उन्होने कुछ नये प्रश्नो का निर्माण किया। हिंदू चिंतन पर आधारित समयानुकूल समाजप्रण्ााली ही आज की समस्याओं का समाधान कर सकता है, परंतु इसको सिध्द करने के लिये अपने चिंतन को गतिशील बनाकर, उसपर आधारित समाज व्यवस्था द्वारा समृध्द समर्थ हिंदूस्थान का प्रभाव सारे संसार को दिखलाना चाहिये।

तीसरे विकल्प की तलाश
पश्चिम के विकास नमूनों उनके पीछे की दृष्टि में सबकुछ ठीक नही है। पश्चिमी संस्कृति में सुख के लिये चल रही घोेडदौड में पूर्णत: निश्चितता नही है। उलटे इन विकसित देशों मे प्रगति के दुष्परिणाम चिंताजनक प्रमाण में दिखाई देने लगें है। भौतिक समृध्दि के महासागर में बढती हुयी बेकारी, गरीबी, बढती सामाजिक आर्थिक विषमता, नये नये असाध्य रोगो का लगना, व्यक्ति और समाज के संबंध को देखने वाली निरर्थ भावनात्मक तंत्रविज्ञान की तेज गति के कारण मानव जीवन के प्रति उदासीनता भ्रमितावस्ता तंत्रज्ञान के अमर्यादित अवलंबन के कारण चिंताजनक प्रदूषण धोखे मे दिखाई देता पृथ्वी का अस्तित्व, ऐसी अनेक घटनाओं के कारण विकसित देशों के मानवहितैषी विश्व कल्याण की आशा रखने वाले विचारवान, समाजशास्त्रज्ञ चिंतामग्न है और सुप्रतिष्टित हुये विकास के नमूनों के बदले को कोई अलग तीसरा विकल्प हो सकता है क्या? इस दृष्टि से आज जागतिक वैचारिक विश्व मे खोज जारी है।

पश्चिम मे ज्ञात आजकी अंतिम परिस्थिति किसी भी विशिष्ट विकास आदर्श से संबंधित होकर केवल भौतिक प्राप्ति से जुडी जीवन दृष्टि के अनूसरण से निर्माण हुई है।

इस भौतिक उत्कृष्टता से निर्माण हुई सास्कृतिक अनवस्था के कारण पश्चिमी विचारवान तत्वज्ञ-शास्त्रज्ञ, भौतिक प्रगति के इस झंझावत मे भी स्वयं थोडा एककर सूक्ष्म आत्मनिरीक्षण आत्मचिकित्सा करने लगे है।

पश्चिमी विकास के एक एक घातक परिणामों की अलग- अलग प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बदले मे पूंजीवादी साम्यवादी इन दोनो विकास के नमूनों के विकल्प Third Way मे  हो सकता है क्या? इसकी शोध पश्चिमी विद्वान करने लगे है।

एकात्म मानव दर्शन की वैश्विक आवश्यकता

पश्चिमी विकास संकल्पना आज राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक प्रकार की सांस्कृतिक अराजकता के निर्माण का कारण सिध्द हो रहा है। इस अराजकता का बोध संसार के प्रमुख विचारवानों को होने लगा है, और इसके लिये किसी अलग मार्ग की तलाश करने लगे है।

ऐसे समय में व्यक्ति के विकास के द्वारा समाज अखिल मनुष्य जाति को कल्याणकारी सिध्द होने वाला मार्ग को हिंदू जीवन दृष्टि ही दिखा सकता है। यह विश्वास हमारी परंपरासे मिल सकता है। संसार को यह विश्वास दिलाने के लिये इस जीवनदृष्टि में वर्तमान संदर्भो का युगानुकूल रूप भलिभॉति संसार के समक्ष रखना चाहिये।

संसार की महत्वपूर्ण आर्थिक समस्या एकात्म मानवदर्शन

(1)        जागतिक प्रदूषण
(2)        गरीबी
(3)        आर्थिक विषमता
(4)        बेरोजगारी
(5)        अनिर्बंध उपभोगवाद
(6)        बढता मानसिक तनाव

ये प्रश्न मुख्यत: पाश्चात्य अर्थशास्त्रानुसार किये गये प्रवास के कारण उत्पन्न  हुये है। यदि ऐसा भी है तो भी इनकी केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही देखकर नही चलेगा। इनके अनेक तात्विक, सामाजिक सास्कृतिक पक्ष है। इस लिये इनके निरीक्षण उत्तार जानने के लिये समग्र एकात्म दृष्टिकोण को स्वीकार करना पडेगा।

जागतिक प्रदूषण           
आप ऊपर देखही चुके है कि एकात्म मानव चिंतन संस्कारो से निसर्ग से जो संबंध जुडते है उन्ही के आधार पर पर्यावरण का संरक्षण हो सकता है तथा वातावरण मे आये घातक बदलाव को टाला जा सकता है।

गरीबी
अंत्योदय के दृष्टिकोण से विकास की प्रकृया को प्रामुख्य से सभी देशों के वंचित वर्गों के इर्दगिर्द ही केंद्रित करना पडेगा। आज से संसार की सारी गरीबी को मिटाने के लिये साधन संपत्तिा की कमी है ऐसा नही है बल्कि इसका बडा भाग तथाकथित विकसित राष्ट्रों के कब्जे मे होने के कारण तथा अपने सतत बढते उपभोग के लिये निर्बंध उपयोग सुरू रखने से समस्या का समाधान नही निकल सकता है। इस समस्या को हल करने के लिये ''सबसे नीचे  स्तर के उपेक्षितों के हित को प्रधानता से रक्षा होनी चाहिये'' ऐसी मानसिक सोच केवल ऐकात्म मानव दर्शन से ही प्राप्त हो सकती है।

आर्थिक विषमता
आज की विकासपध्दति के कारण आर्थिक विषमता बढती ही है। ऐसा जागतिक विवरणों से पता चलता है। पहले संपत्तिा का निर्माण होने दे और बाद में उसका न्यायपूर्ण वितरण हो सकेगा, ऐसा यह आशावाद पिछले 50 वर्षो के अनुभव में झूठा साबित हुआ है। संपत्तिा का निर्माण होते ही ये केन प्रकारेण धीरे धीरे ही क्यों हो दूसरों में वितरित होगा। यह परिस्त्रावण सिध्दांत (Percolation Theory) भी काम नहीं करता जैसा कि जागतिक स्तर पर सिध्द हो चुका है। इसी लिये संपत्तिा का उत्पादन वितरण एक ही साथ होना चाहिये। यह दृष्टि हेतु होना चाहिये। एकात्म दृष्टि होने से यह सहज प्रवाही होता है।

बेरोजगारी
व्यक्ति को समाज में सम्मानपूर्वक जीवने के लिये उसकी आंतरिक आवश्यकतानुसार ही उत्पादक कार्य होना चाहिये। यह काम नौकरी के स्वरूपमे ही हो ऐसा नही है। स्वयंरोजगार के स्वरूप् मे भी हो सकता है। सभी को ऐसा अवसर उपलब्ध कराने की प्रक्रिया हर एक योजना का एक महत्वपूर्ण घटक हो। अल्प बचत योजना भी आवश्यकता होगाी। इस प्रस्ताव को केंद्र मे रखकर यदि दूसरे अर्थ व्यवहारो का सर्वेक्षण किया जाय तो बेरोजगारी की समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकेगा तथा सामाजिक स्वास्थ्य मे भी सुधार आयेगा।

अनिर्बंध उपभोगवाद
आज की विकास पध्दति के अनुसार अधिकाधिक उपभोग से अधिकाधिक सुख मिलेगा। इस प्रकार के प्रचार की मरमार करके उपभोगवादी प्रवृत्तिा को उत्ताजना दी जा रही है। इससे ज्यादा उपभोग के लिये ज्यादा उत्पन्न करने पर दबाव आता है ज्यादा उपभोग से तृप्ति मिलेगी ही इसकी खात्री नहीं होती।

इस पर विजयप्राप्ति के लिये संयत उपभोग का व्यावहारिक आदर्श एकात्म मानव दर्शन देता है।

बढता मानसिक तनाव
अनिर्बंध उपभोग उसके लिये दबाव से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है। वैसे ही मनुष्य की कोई कीमत नही रहने , अथवा एक जड पदार्थ की ही मत करनेवाली उत्परदन पध्दति के कारण परात्मभाव (Self alienation) बढने लगता है। यह मावर्स के समय से ही चर्चा में है। इन सब का संकलित परिणाम ही मनोकामिक रोगों की संख्या में प्रचंड वाढ का कारण है। इसका इलाज भी एकात्म मानव दर्शन में ही मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त योग आयुर्वेद का उपयोग भी इसपर प्रभावी होगा।

वैश्विक प्रश्नों का निदान इस राष्ट्रीय वैभव सामर्थ्य से संभव
आज के प्रश्नों का उत्तार खोजते समय एक तरफ हमे अपने तत्वज्ञान का सहरा लेना पडेगा तथा दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान/तंत्रज्ञान की सभी शाखाओं को भलीभॉती आत्मसात करके समाज हित के लिये उनका उपयोग करना पडेगा। आध्यात्म विज्ञान के संतुलित चिंतन के प्रकाश मे हमे मनुष्य की समस्याओं के निदान का मार्ग खोजना पडेगा।

भारतीय चिंतन में समाज के प्रश्नों को हल करने की जो युगानुकूल क्षमता है, उसे हमारे पूर्वजों ने अनेक रचनाओं को रचकर सिध्द किया उदा. मानसिक तनाव को निरस्त करने की क्षमता
(योग द्वारा) , भौतिक वैभव के साथ पर्यावरण के संतुलन की संरक्षा, स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था की क्षमता को अपने मे आज के प्रश्नों से छुटकारा पाने के लिये प्रस्थापित करता पडेगा। इसीसे अपना राष्ट्रीय परम वैभव सर्वांगसहित खडा रहेगा संसार में उसे सुयोग्य स्थान की प्राप्ति होगी। अपना ऐसा समर्थ वैभवशाली राष्ट्र ही संसार को कल्याणाकारी मार्ग पर ले जा सकेगा।
(WRITER: NOT KNOWN)

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