गुरुवार, २९ सप्टेंबर, २०१६

EKTMA MANAV DARSHAN AUR SHIKSHA



एकात्म मानवदर्शन और शिक्षा
-    इन्दुमति काटदरे

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। आवश्यकता के कारण वे जनसंघ के कार्यकर्ता बने थे। उनके चिन्तन के लिये केवल ये दो बातें ही पर्याप्त नहीं थीं। वे उत्तम अध्येता और प्रगाढ़ चिन्तक भी थे। समग्रता की दृष्टि और व्यावहारिक विचार उनकी विशेषता थी। एकात्म मानवदर्शन के रूप में उन्होंने ऐसा चिन्तन प्रस्तुत किया जिसके अनुसार शाश्वत तत्त्वों के आधार पर वर्तमान में क्रियान्वयन की योजना बन सके।

चिन्तन को यदि व्यवहार में उतारना है तो वह शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव होता है। शिक्षा ऐसी व्यवस्था है जिससे व्यक्ति का मानस बनता है, उसके विचार बनते हैं, विभिन्न प्रकार के कौशल विकसित होते हैं। कौशल, भावना और बुद्धि के क्षेत्र में विकसित व्यक्ति ही अपना जीवन सुसंस्कृत, समृद्ध और पौरुषपूर्ण बनाता  है। ऐसा व्यक्ति ही समाज की व्यवस्थाओं को बनाता भी है और संचालित भी करता है। सहज और स्पष्ट रूप से हम कह सकते हैं कि जैसी शिक्षा वैसा व्यक्ति, जैसी शिक्षा वैसा समाज बनता है। इसलिये एकात्म मानवदर्शन के अनुसार यदि हमें समाजरचना का विचार करना है तो शिक्षा का विचार करना अनिवार्य होगा।

वास्तव में आज यदि राष्ट्रजीवन में जिन भीषण से लेकर सामान्य समस्याओं का सामना हम कर रहे हैं उसका मूल कारण अनवस्थ शिक्षा ही है। अत: हमें शिक्षा का विचार करना प्राप्त है।

एकात्म मानवदर्शन की आधारभूत धारणायें
·         विश्व के हरेक राष्ट्र का अपना एक स्वभाव होता है। राष्ट्र की सारी व्यवस्थायें, मान्यतायें, जीवनशैली, परम्परायें, सुखदु:ख की कल्पनायें उस स्वभाव के अनुसार ही होती है। यह स्वभाव राष्ट्र की आत्मा है और उसे चिति कहा गया है।
·         चिति के प्रकाश में राष्ट्रजीवन की मान्यतायें, जीवनशैली, व्यवस्थायें आदि को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिये, उसके रक्षण, पोषण, संवर्धन और निर्वहण के लिये प्रजा की जो कार्यशक्ति प्रयुक्त होती है उसे विराट कहा गया है। वह राष्ट्र का प्राण है।
·         इस चिन्तन के अनुसार जीवन एक है और अखण्ड है। सृष्टि के प्रारम्भ से काल के अविरत प्रवाह में तथा अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड में जीवन की धारा एक ही है। उसमें कहीं भी विच्छिन्नता नहीं है । राष्ट्रजीवन के व्यवहार में यह एकता और अखंडता परिलक्षित होती है।
·         मनुष्य भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति है। मनुष्य का व्यक्तित्व एकात्म है। वह केवल बाहर से दिखाई देने वाला शरीर ही नहीं है । वह शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। उसका और उसके साथ का व्यवहार यह तथ्य ध्यान में लेकर ही होना चाहिये।
·         मनुष्य जिस प्रकार व्यक्तिगत रूप से एकात्म है उसी प्रकार वह सृष्टि के सभी जडचेतन पदार्थों से बाह्य तथा आन्तरिक रूप से भी जुड़ा हुआ है अर्थात उसका सभी के साथ सम्बन्ध एकात्म है। अत: समाज जीवन की सारी व्यवस्थायें एकात्म दृष्टि से ही करनी चाहिये।
·         कोई भी पदार्थ, कोई भी व्यक्ति या कोई भी राष्ट्र अपने मूल स्वभाव से विपरीत व्यवहार नहीं कर  सकता। यदि उसे ऐसा व्यवहार करने के लिये बाध्य किया जाता है तो सर्वत्र दु:ख और अनवस्था फैलते हैं।
·         मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का या सम्पूर्ण सृष्टि का स्वभावानुसार व्यवहार बना रहे इसलिये जो स्वाभाविक नियम बने हैं उन्हीको धर्म संज्ञा दी गई है। धर्म ही सभी व्यवस्थाओं और व्यवहारों का मूल तत्त्व है। सर्व प्रकार का जीवन धर्माधिष्ठित होना ही सभी समस्याओं का समाधान है।
·         एकात्म मानवदर्शन की यह संकल्पना युगों में विकसित भारतीय विचारधारा की युगानुकूल प्रस्तुति है। यह संकल्पना अपेक्षा करती है कि शाश्वत जीवनविचार की युगानुकूल प्रस्तुति हर कालखण्ड में होनी चाहिये। यही जीवन्तता का लक्षण है ।
·         विश्व के सभी राष्ट्रों से हमारे सम्बन्ध बनते हैं। हम उनसे प्रभावित हुए बिना या उन्हें प्रभावित किये  बिना रह नहीं सकते। यह सम्बन्ध आदानप्रदान से ही बना रहता है । हम विश्व के अन्यान्य राष्ट्रों को कुछ दें तब उनके कल्याण का विचार करें और जब भी कुछ लें तो उसे देशानुकूल बनाकर लें।
·         राष्ट्रों, मनुष्यों या पदार्थों के सम्बन्ध, या उनका विकास संघर्ष से या स्पर्धा से नहीं होता, उनका आधार समन्वय ही होता है। समन्वय का मूल आधार एकात्मता ही है।

एकात्म मानवदर्शन के अनुकूल शिक्षा की रचना
पूर्व में उल्लेख किया है उस प्रकार किसी भी तत्त्व को व्यावहारिक स्वरूप देना है तो उसे शिक्षा का माध्यम देना होगा। शिक्षा ही संस्कार, ज्ञान, रीतिरिवाज, जीवनशैली आदि को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है। संस्कारपरम्परा, ज्ञानपरम्परा, गुणपरम्परा शिक्षा से ही बनती है। शिक्षा के इस अनन्यसाधारण महत्त्व को समझकर उसकी रचना करनी चाहिये।

एकात्म मानव के लिये शिक्षा का स्वरूप
मनुष्य एकात्म है। एकात्म संज्ञा में आत्मा संज्ञा आधाररूप है। समस्त सृष्टि अपने मूल रूप में आत्मतत्त्व ही है। यह सृष्टि आत्मतत्त्व से नि:सृत हुई है। वह आत्मतत्त्व का व्यक्त रूप है। मनुष्य उसका एक अंश है। इसलिये वह भी एकात्म है। व्यक्त रूप में वह शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। पंडितजी की यह कल्पना औपनिषदिक चिन्तन पर आधारित है, यद्यपि उन्होंने उसका उल्लेख कहीं नहीं किया है। तैत्तिरीय उपनिषद में आत्मा की पंचकोशात्मक अभिव्यक्ति का वर्णन है। उस वर्णन के अनुसार मनुष्य का व्यक्तित्व पंचकोशात्मक है। ( यद्यपि उपनिषद उसका वर्णन पंचविध पुरुष के रूप में ही करता है, पंचकोश संज्ञा भगवान आदि शंकराचार्य की दी हुई है।) ये पंचकोश हैं ... 1अन्नमय कोश, 2प्राणमय कोश, 3मनोमय कोश, 4 विज्ञानमय कोश और 5 आनन्दमय कोश।
स्थूल रूप में हम इन्हें शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त कह सकते हैं। कई बार चित्त के स्थान पर आत्मा संज्ञा का प्रयोग होता है। पंडितजी ने भी किया है, परन्तु तात्त्विक दृष्टि से आत्मा संज्ञा का प्रयोग करना अनुचित होगा क्यों कि आत्मतत्त्व सर्वथा इन सभी व्यक्त स्वरूपों से परे है। उसका वर्णन अव्यक्त, अचिन्त्य, अकल्प्य, अस्पर्श्य, अदृश्य, अश्राव्य ऐसा ही किया गया है। हम भी शिक्षा का विचार करते समय इस पंचकोशात्मक व्यक्तित्व की संकल्पना का स्वीकार कर सकते हैं।

व्यक्ति का पंचकोशात्मक विकास हो यह शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है। विकास किसे कहते हैं यह भी खास समझने की आवश्यकता है। वर्तमान में विकास के बहुत ही भौतिक स्वरूप की कल्पना की जाती है। परन्तु हमें विकास के सांस्कृतिक स्वरूप की कल्पना करनी चाहिये। विकास की वर्तमान संकल्पना एकरेखीय (linear) है जबकि हमें वृत्तीय (circular) संकल्पना लेकर चलना चाहिये। विकास की वर्तमान संकल्पना का एक लक्षण यह भी है कि वह व्यक्तिकेन्द्रित है जबकि उसे परमेष्ठीकेन्द्रित होना चाहिये। विश्व के अधिकांश विचारवान लोग अब विकास की भौतिक, एकरेखीय और व्यक्तिकेन्द्रित संकल्पना को अनुचित और त्याज्य मानने लगे हैं। वास्तव में वह विकास नहीं है, विनाश ही है। विकास की सांस्कृतिक, वृत्तीय और परमेष्ठीकेन्द्रित संकल्पना के अनुसार विकास आगे ही आगे बढ़ना, निरन्तर वृद्धिंगत होना या अधिक से अधिक वस्तुओं को जुटाना नहीं है। विकसित होने का अर्थ अलग है।

व्यक्ति जन्म से ही विभिन्न प्रकार की सम्भावनाओं को लेकर आता है। ये सम्भावनायें (potentials) उसे जन्मजन्मांतरों के संस्कार से प्राप्त हुई होती हैं। इन सम्भावनाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति ही व्यक्ति का विकास है। व्यक्ति का ऐसा विकास साधना शिक्षा का लक्ष्य है।

पंचकोशात्मक व्यक्तित्व के विकास का स्वरूप
अन्नमय कोश: स्थूल रूप में इसे शारीरिक विकास कहेंगे। शारीरिक विकास के आयाम इस प्रकार हैं ...
-    शरीर के सभी अंगउपांगों की समुचित वृद्धि और विकास होना;
-    शरीरस्वास्थ्य अर्थात निरामयता प्राप्त होना;
-    शरीर में बल और लोच आना;
-    शरीर के अंगों और उपांगों को अपने अपने नियत कार्य करने की कुशलता प्राप्त होना;
-    शरीर सहनशील बनना।
यह सब प्राप्त होने के लिये आहार, विहार, व्यायाम, निद्रा, कृतिशीलता, श्रमकार्य आदि कारक तत्त्वों के रूप में काम करते हैं । स्वाभाविक है कि परिवार और विद्यालय मिलकर ही शारीरिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था कर सकते हैं।
            शरीर का महत्त्व दो कारणों से है। पंडितजी दो शास्त्रवचन उद्धृत करते हैं । एक है नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। अर्थात आत्मतत्त्व का साक्षात्कार दुर्बल शरीरवालों को नहीं होता। दूसरा है शरीरमाद्य खलु धर्मसाधनम। अर्थात किसी भी प्रकार का पुरुषार्थ, किसी भी प्रकार की सिद्धि, किसी भी प्रकार का पराक्रम दुर्बल शरीर से सम्भव नहीं होता। अत: विकसित शरीरशक्ति शिक्षा का प्रारम्भिक उद्देश्य है।

प्राणमय कोश: व्यक्ति का शरीर यंत्रशक्ति है। प्राण शरीर की कार्यशक्ति है। उसे जीवनीशक्ति भी कहते हैं। प्राण की ऊर्जा से ही शरीर कार्य कर सकता है और जिन्दा कहा जाता है यह तो सब जानते है। यह प्राण बलवान होना चाहिये, नियमन में रहना चाहिये और संतुलित रहना चाहिये। तभी कार्यसिद्धि होती है। बलवान और संतुलित प्राण ही उत्साह, विजिगीषु मनोवृत्ति, उच्च लक्ष्य, विधायक सोच आदि का प्रेरक होता है। बलवान प्राणशक्ति के बिना यश प्राप्त नहीं होता है।
             प्राणमय कोश के विकास के लिये आहार, निद्रा, समुचित श्वसन, प्राणायाम, शुद्ध वायु आदि कारक तत्त्व हैं। यह भी घर और विद्यालय दोनों का समन्वित दायित्व है।

मनोमय कोश: सृष्टि परमात्मा का व्यक्त विश्वरूप है। इस सृष्टि में सभी पंचमहाभूतों का स्वरूप अन्नमय है, वृक्षवनस्पति, पशुपक्षीप्राणी आदि का स्वरूप अन्नमय और प्राणमय है। उनमें मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोश अक्रिय रहते हैं। केवल मनुष्य में ये कोश सक्रिय होते हैं। यही मनुष्य की विशेषता है।
            मन के विकास का स्वरूप समझने से पहले मन का स्वरूप समझना चाहिये।
-    मन चंचल और अस्थिर है। मन हमेशा भटकता रहता है। मन की भटकने की गति वायु से भी अधिक है। मन रजोगुणी है।
-    मन निरन्तर उत्तेजनाग्रस्त रहता है। हर्षशोक, रागद्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से ग्रस्त रहता है।
-    मन द्वन्द्वात्मक है। वह संकल्पविकल्प करता रहता है। हमेशा अनिर्णायक रहता है। सुखदु:ख, मान अपमान, रुचि अरुचि आदि द्वन्द्व मन के विषय हैं।
-    मन कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है। उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है।
-    मन की तीन शक्तियाँ हैं : विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति। सभी ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों को मन ही विचारों में अनूदित करता है। दया, अनुकम्पा जैसी भावनायेँ भी मन के विषय हैं। मन इच्छाओं का पुंज है। मन की इच्छायेँ कभी पूर्ण नहीं होती।
-    मन उसे अच्छी लगने वाली वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं में आसक्त हो जाता है। जिसमें आसक्त हुआ है उससे अलग होना पड़ता है तब वह दु:खी हो जाता है।
-    मन अतिशय बलवान होता है। सामान्य रूप से अपने वश में नहीं रहता है। वह बुद्धि को खींचकर ले जाता है, प्रभावित करता है और गलत निर्णय करवाता है। विश्व के सारे के सारे पक्षपातपूर्ण आचरण अशिक्षित मन के कारण होते हैं।
संक्षेप में मनुष्य के लगभग सभी संकटों का कारण अशिक्षित मन है।

मन के विकास का स्वरूप
-    चंचल मन को स्थिर और एकाग्र बनाना;
-    उत्तेजनापूर्ण मन को शान्त बनाना;
-    आसक्त मन को अनासक्त बनाना;
-    सद्गुण एवं सदाचार को प्राप्त करवाना ही मन के विकास का स्वरूप है।

भारत के सभी शिक्षाशास्त्रियों ने मन की शिक्षा को अहम माना है। दुर्भाग्य से वर्तमान शिक्षा में मन की शिक्षा की बहुत उपेक्षा हुई है। अब अनेक मनीषी, अनेक सांस्कृतिक संगठन और शिक्षाशास्त्री मूल्यशिक्षा की जो बात करते हैं वह वास्तव में मन की शिक्षा ही है। व्यापक अर्थ में जिसे धर्मशिक्षा कहते हैं वह भी मन की शिक्षा है।

प्रत्याहार और धारणा समेत ध्यान, सात्त्विक आहार, सत्संग, सेवाकार्य, सद्ग्रंथों का स्वाध्याय, नियमपालन, आज्ञापालन, संयम आदि मन के विकास के कारक तत्त्व हैं। इन सबका विद्यालयीन गतिविधियों में समावेश करने से ही मन की शिक्षा और मन का विकास सम्भव है।

विज्ञानमय कोश: लौकिक भाषा में इसे बुद्धि के रूप में समझ सकते हैं। ज्ञान के क्षेत्र में इसका बड़ा महत्त्व है। इसके सम्बन्ध में इस प्रकार विचार किया जा सकता है।
-    बुद्धि जानती है, समझती है, आकलन करती है, ग्रहण करती है, धारण करती है ।
-    बुद्धि विवेक करती है, निर्णय करती है।
-    मन संकल्पविकल्प करता है, संशय करता है, बुद्धि निश्चयत्मिका होती है।
-    निरीक्षण, परीक्षण, अनुमान, तर्क, तुलना, विश्लेषण, संश्लेषण बुद्धि के साधन हैं जिससे वह निर्णय तक पहुँचती है।   

बुद्धि के विकास के कारक तत्त्व इस प्रकार हैं...
-    बुद्धि सत्त्वगुणी है। आहार का सात्त्विक अंश बुद्धि में परिणत होता है। इसलिए सात्त्विक आहार बुद्धिविकास के लिए आवश्यक है।
-    मन का संयम बुद्धिविकास के लिये अनिवार्य है। मन की शिक्षा सम्यक रूप से नहीं होती है तो बुद्धि का विकास सम्भव नहीं है।
-    निरीक्षण, परीक्षण आदि के लिये पर्याप्त अवसर मिलना आवश्यक होता है। विद्यालयों की पाठन पद्धति पर यह मुख्य रूप से अवलम्बित है।

आनन्दमय कोश: आत्मा, अहंकार, बुद्धि जैसी विभिन्न संज्ञाओं से इसे पहचाना जाता है, परंतु पंचकोश की परिभाषा में इसे चित्त कहना अधिक उपयुक्त होगा। यह संस्कारों का क्षेत्र है। संस्कार यह विविध प्रकार के अनुभवों की चित्त पर पड़ने वाली छाप (imprints) को कहते हैं । इंद्रियों के, मन के और बुद्धि के कार्यों और अनुभवों के संस्कार चित्त पर होते हैं। इन संस्कारों से स्मृति बनती है। जिन अनुभवों के संस्कार गहरे होते हैं उनकी स्मृति भी तीव्र होती है, अन्यथा उन अनुभवों का विस्मरण हो जाता है। अत: ज्ञान के क्षेत्र में किसी भी अनुभव का संस्कार में परिणत होना आवश्यक होता है।  
           आनन्द, प्रेम, अभय, सृजन, स्वतन्त्रता ये चित्त के क्षेत्र हैं।
           चित्तशुद्धि होना यह चित्त का विकास है। ध्यान यह उसके लिये प्रमुख उपाय है। सात्त्विक आहार इसके लिये उपकारक है। मन की शिक्षा इसके लिये अनिवार्य उपाय है। मन की शिक्षा के सत्संग, सेवा, स्वाध्याय चित्तशुद्धि के लिये बहुत कारगर उपाय हैं।
           पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जब मनुष्य के व्यक्तित्व को शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समुच्चय के रूप में निरूपित करते हैं तब शिक्षा के द्वारा उसके विकास का यह स्वरूप बनता है।

व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि, परमेष्ठी के सन्दर्भ में शिक्षा का स्वरूप
            यह सृष्टि परमात्मा का व्यक्त विश्वरूप है। इसमें मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। उसका सम्बन्ध जडचेतन सभीसे होता है। वास्तव में सृष्टि का सारा व्यवहार आपसी आदानप्रदान से ही चलता है। मनुष्य को अपना व्यवहार भी इस आदानप्रदान की प्रक्रिया को न्यायपूर्ण पद्धति से निभाने के रूप में चले इस प्रकार का होना चाहिये।
            व्यष्टि का अर्थ है व्यक्ति स्वयं, अर्थात एक एक मनुष्य। समष्टि का अर्थ है सम्पूर्ण विश्व का मानवसमाज। सृष्टि से तात्पर्य है मनुष्येतर सृष्टि अर्थात पंचमहाभूत, वनस्पतिसृष्टि और प्राणीसृष्टि। परमेष्ठी से तात्पर्य है वह परम तत्त्व जिससे यह सृष्टि नि:सृत हुई है।
            सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य परम तत्त्व की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है। शेष सभी जडचेतन पदार्थ अन्नमय और प्राणमय कोश में व्यवहार करते हैं। शेष सारे कोश उनमें अक्रिय होते हैं। परन्तु मनुष्य में शेष तीन कोश भी सक्रिय होते हैं। इस कारण से मनुष्य को मन, बुद्धि और चित्त की शक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। परमात्मा ने मनुष्य को अपने प्रतिरूप में निर्माण किया है। इस कारण से उसका दायित्व भी अधिक है। इस दायित्व की भावना से उसे इस सृष्टि में अपनी भूमिका का निर्वहण करना है।

परमेष्ठी: उसे नित्य स्मरण रखना है कि वह परमात्मा का प्रतिरूप है। साथ ही यह सृष्टि भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। इस सन्दर्भ में दो सूत्र स्मरण करने योग्य हैं... १. अह ब्रह्मास्मि, और २. सर्वं खलु इदं ब्रह्म। उसके जीवन का लक्ष्य इस सत्य का साक्षात्कार करना है।

सृष्टि: मनुष्य इस सृष्टि का एक अंग है। उसका जीवन पंचमहाभूत, वृक्षवनस्पति और प्राणीसृष्टि के बिना सम्भव नहीं होता। इस बात को ध्यान में रखकर उसे अपना व्यवहार ठीक करना चाहिये । इस व्यवहार के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं ...
-    सृष्टि के प्रति स्वामित्व का नहीं अपितु स्नेह का भाव रखना चाहिये ।
-    सृष्टि के उपकारों को स्मरण में रखते हुए उसके प्रति कृतघ्नता नहीं अपितु कृतज्ञता का भाव रखना चाहिये ।
-    प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं अपितु दोहन करना चाहिये ।
-    ऐसा करने के लिये आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करना चाहिये।
-    प्राकृतिक संसाधनों को प्रदूषित नहीं करना चाहिये ।

समष्टि: समष्टि का अर्थ है मानव समुदाय। यह केवल भारत का ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व का मानव समुदाय है। इस मानवसमुदाय के सन्दर्भ में उसके व्यवहार के सूत्र इस प्रकार होंगे...
-    मानव मात्र के साथ का सम्बन्ध आत्मीयता का होना अपेक्षित है।
-    मानव मात्र के लिये सुख, स्वातंत्र्य, सुरक्षा और आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित है। अपनी सभी व्यवस्थाओं की रचना इस बात को सुनिश्चित करने वाली होनी चाहिये।

समष्टि और सृष्टि के सन्दर्भ में उसकी दृष्टि इस सुभाषित में वर्णित रूप में होनी चाहिये ...    सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।  सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दु:खभाक भवेत।।

शिक्षा का प्रश्न
व्यक्ति के व्यक्तित्वविकास के लिये जो भी बातें अपेक्षित हैं वे तो थोड़े बहुत प्रयासों से हो भी जाती हैं परन्तु परमेष्ठीगत विकास के लिये भगीरथ प्रयास करने की चुनौती हमारे सामने है । व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्ठी के सन्दर्भ में जो भी बातें एकात्म मानव दर्शन में अपेक्षित हैं वे सब विद्यालयो, महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों के विषय हैं। बाल, किशोर, तरुण और युवा अवस्थाओं में निरन्तर रूप से जो पढ़ाया जाता है उसीसे छात्रों के विचार, मानस, समझ, व्यवहार और दृष्टि बनते हैं। ऐसे छात्र जब पढ़ाई पूर्ण करके जीवन के क्षेत्र में आते हैं तब उनका व्यवहार जो पढे हैं उसके अनुसार ही होगा इसमें आश्चर्य नहीं। इन शिक्षित लोगों की कल्पना के अनुसार ही देश भी चलता है। आज हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयो, और विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों में जो सिद्धान्त पढ़ाये जाते हैं वे एकात्म मानव दर्शन के सर्वथा विपरीत हैं। इस स्थिति में देश में सांस्कृतिक और भौतिक स्वरूप की वर्तमान में परेशान करने वाली समस्यायें पैदा हों इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं। इस स्थिति में हमें शिक्षा में हर स्तर पर पुनर्विचार करना होगा। सूत्र रूप में कहें तो...
·         हमें अध्यात्मशास्त्र को अधिष्ठान के रूप में पढाना होगा ।
·         अध्यात्मशास्त्र के अधिष्ठान पर सभी भौतिक और सांस्कृतिक विषयों के पाठ्यक्रमों की रचना करनी होगी।
·         उदाहरण के लिये हमें सामाजिक करार (social contract) वाले समाजशात्र की नहीं अपितु परिवारभावना के अधिष्ठान वाले समाजशास्त्र की रचना करनी होगी।
·         हमें नीतिविहीन अर्थशास्त्र नहीं अपितु हर हाथ को काम देने वाले, व्यक्ति की आर्थिक स्वतन्त्रता सुरक्षित रखने वाले, अर्थ के प्रभाव और अभाव दोनों से मुक्त, मनुष्य की लोभ से प्रेरित इच्छाओं को नहीं अपितु आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले, विकेन्द्रित, सादी तकनीकीयुक्त उत्पादन तन्त्र वाले अर्थशास्त्र की रचना करनी होगी।
·         इस प्रकार लगभग सभी विषयों के बारे में हमें पुनर्रचना करने की आवश्यकता पड़ेगी।
शिक्षा के सन्दर्भ में और भी बात विचारणीय है वह यह है कि इसे परिवार में मिलने वाली शिक्षा से भी जोड़ना पड़ेगा। साथ ही शिशुअवस्था से होने वाली शिक्षाव्यवस्था का भाग भी बनाना पड़ेगा।

यहाँ तक हमने एकात्म मानव दर्शन के आधार पर शैक्षिक पक्ष की बात की। और दो पक्षों का भी पण्डितजी ने विचार किया है। वे हैं व्यवस्था पक्ष और आर्थिक पक्ष 

पण्डितजी मानते हैं कि शिक्षा नि:शुल्क होनी चाहिए। किसीको पैसे नहीं हैं इसीलिए शिक्षा से वंचित नहीं रहना पड़ना चाहिए। शिक्षा का आर्थिक दायित्व केवल शासन का नहीं होता है। शिक्षा समाज का दायित्व है। इसलिए शिक्षा का आर्थिक दायित्व भी समाज का ही होना चाहिए। इसी प्रकार से शिक्षा का व्यवस्थापन शासन का न दायित्व है न अधिकार। केंद्रीकृत व्यवस्था तो जिस प्रकार उद्योगों में नहीं चल सकती उसी प्रकार शिक्षा में भी नहीं चल सकती। वह पूर्ण रूप से विकेंद्रित होनी चाहिए। शिक्षा का व्यवस्थात्मक अधिकार वास्तव में तो शिक्षक का ही होना चाहिए, शेष सभी उसके सहायक हो सकते हैं। शिक्षक इतना समर्थ होना चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारी से शिक्षाव्यवस्था चलाये। 

यह काम सरल नहीं है। शिक्षा जिस प्रकार आज यान्त्रिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र से नियंत्रित और बाजार का एक हिस्सा बन गई है उसे देखते हुए यह काम कठिन है क्यों कि जो करणीय है वह सर्वथा इससे विपरीत है। यह व्यवस्था इस काम को करने के लिये अवरोध भी निर्माण कर सकती है। परन्तु जब तक यह किया नहीं जाता तब तक देश की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा नहीं। अत: निश्चयपूर्वक कार्ययोजना बनानी चाहिये।

कार्ययोजना के कुछ सूत्र इस प्रकार हो सकते हैं ...
·         चिन्तन करने वाले एक छोटे वर्ग को अध्ययन और अनुसन्धान में लगना चाहिये।
·         सभी विषयों का एकात्म दृष्टि से चिन्तन कर सभी स्तरों के लिये पाठयक्रम तैयार करना चाहिये।
·         वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर सभी स्तरों पर पाठयक्रम के अनुसार साहित्यनिर्माण करना चाहिये।
·         इस प्रकार की शिक्षा के कहीं पर प्रयोग केन्द्र शुरू करना चाहिये ।
·         व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवनशैली कैसी हो इसके भी मार्गदर्शक सूत्रों का निरूपण करना चाहिये।
·         वर्तमान व्यवस्थायें किस प्रकार विपरीत हैं इसकी ओर बौद्धिक क्षेत्र का ध्यान आकर्षित करना चाहिये और उसका पर्याय भी बताना चाहिये
संक्षेप में एकात्म मानवदर्शन के अनुकूल शिक्षा की रचना करना एक भगीरथ कार्य है । परन्तु यह करणीय कार्य अवश्य है।
             यहाँ इस विषय के अति संक्षेप में केवल सूत्र ही बताये गये हैं जो पर्याप्त विस्तार की अपेक्षा करते हैं। परन्तु सूत्रपात के रूप में इतना पर्याप्त है। इति शुभम।         

संपर्कः श्रीमति इंदुमति काटदरे, पुनरुत्थान विद्यापीठ, ज्ञानम, 9बी आनंदपार्क, कांकरिया, अमदाबाद 380028. दूरभाषः 079-25322655, भ्र-0948826731, indumatikatdare@gmail.com, punvidya2012@gmail.com

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