गुरुवार, २९ सप्टेंबर, २०१६

EKATMA ARTHCHINTAN 3





दीनदयाल जी का एकात्म अर्थचिन्तन

-    डॉ. बजरंगलाल गुप्ता


 
अर्थदृष्टि एवं अर्थसंस्कृति
अर्थ एवं अर्थाजन के संबंध में क्या दृष्टिकोण रहे ? इस बारे में भी दीनदयाल जी ने बहुत गहराई से चिंतन किया था| उनका मानना है कि मनुष्य एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में धन का होना आवश्यक है | अनुभव यह है कि कई बार अर्थ के अभाव में व्यक्ति के मन में कुंठा, निराशा एवं आक्रोश पैदा हो जाता है और वह अनाचार, अत्याचार, चोरी- डकैती, लूट-खसोट एवं अन्य अनेक प्रकार के आर्थिक अपराधो में संग्लन हो जाता है| इसीलिए तो हमारे यहाँ कहा गया है कि ----

बुभुक्षित: किं न करोति पापम् , क्षीणा: नरा: निष्करूणा: भवन्ति|

(भूखा व्यक्ति कौनसा पाप नहीं करता; भूख से पीड़ित कमज़ोर व्यक्ति निर्दयी हो जाते हैं)| इस प्रकार से अर्थ के अभाव में भी धर्म (अर्थात समाज हित के भले काम) टिक नहीं पाता| अर्थ के अभाव के समान ही अर्थ का प्रभाव भी समाज के लिए घातक हो सकता है| अर्थ के प्रभाव से आशय है :

(i) अर्थ के कारण स्वयं अर्थ में अथवा उसके द्वारा प्राप्त पदार्थो एवं भोग विलास में आसक्ति उत्पन्न हो जाना - केवल पैसे कमाने या संचय करने की धुन लग जाना

(ii) अर्थ का ही समाज के प्रत्येक व्यवहार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मानदंड बन जाना ‘सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति’ की उक्ति के आधार पर ही दैनिक जीवन में व्यवहार प्रारंभ हो जाना| इससे लोगो के जीवन में धनपरायणता आ जाती है, परिणामस्वरुप प्रत्येक कार्य के लिए धन की अधिकाधिक आवश्यकता महसूस होने लगती हैं| अंततोगत्वा धन का प्रभाव प्रत्येक के जीवन में अर्थ का अभाव भी उत्पन कर देता है|

अत: अर्थ के अभाव एवं अर्थ के प्रभाव दोनों से बचना चाहिए| इसके लिए दीनदयाल जी ने अर्थायाम नाम से एक नई संकल्पना दी है| उनके अनुसार, “समाज से अर्थ के प्रभाव व अभाव दोनों को मिटाकर उसकी समुचित व्यवस्था करने को अर्थायाम कहा गया है”| एक अन्य दृष्टि से अर्थ के उत्पादन, वितरण व भोग में संतुलन को भी अर्थायाम कहा जा सकता है | जिस प्रकार से व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम का महत्त्व है, उसी प्रकार अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए अर्थायाम का महत्त्व है| इसके लिए शिक्षा, संस्कार, दैवीसम्पदयुक्त व्यक्तियों का निर्माण तथा अर्थव्यवस्था का उपयुक्त ढांचा सभी का सहारा लेना जरुरी होता है |23 दीनदयाल जी का मानना था कि अर्थव्यवस्था का निर्माण एवं संचालन मानवीय उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए| पश्चिमी अर्थव्यवस्था में (पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों में) मौद्रिक मूल्य एवं धनार्जन को ही अत्यंत महत्त्व का स्थान प्राप्त है इसीलिए उनका नीतिगत नारा है, “कमाने वाला खायेगा ” दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं की दृष्टि तो समान है, अंतर केवल राष्ट्रीय आय वितरण में प्राप्त हिस्से को लेकर है साम्यवादी अर्थव्यवस्था के अनुसार उत्पादन में मुख्य भूमिका श्रम की होती है, अत: देश के कुल उत्पादन व उपभोग में मुख्य हिस्सा भी श्रमिकों को ही मिलना चाहिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका पूँजी व उद्यम की होती है, अत: देश के कुल उत्पादन व उपभोग में मुख्य हिस्सा पूँजीपति व उद्यमी को मिलना चाहिए| किन्तु ये दोनों विचार आधे-अधूरे एवं अमानवीय है| अत: भारतीय चिंतन ने मानवीय दृष्टिकोण से अपने लिए जो दिशा-सूत्र (नारे) निश्चित किए हैं, वे हैं- ‘कमाने वाला खिलायेगा’ तथा “जो जन्मा सो खायेगा”| इसका अर्थ है कि कमाने वाला परिवार में बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज, अतिथि आदि सब के भरण-पोषण की चिंता करेगा और देश में अभावग्रस्त, निर्धन-निर्बल व्यक्ति के निर्वाह का भी समाज का दायित्त्व होगा, इसी में से आगे चलकर ‘अन्त्योदय’ के लिए आर्थिक नीति बनाने की दिशा सामने आयी| और अधिक विचार करने पर यह भी ध्यान आया कि यदि कमाने वाला खिलायेगा और जन्मा सो खायेगा, इतना ही कहकर छोड़ दिया तो इससे मुफ्तखोरी और काम न करने की प्रवृति पनपने का खतरा हो सकता है, अत: इस नारे के साथ ‘खाने वाला कमाएगा’ भी जोड़ा गया| इस समूचे विचार को ध्यान में रखकर ही हमें भारत की अर्थरचना करनी होगी| इसी में से रोजगार-परक उत्पादन प्रणाली का ढांचा खड़ा होगा| दीनदयाल जी का कहना था कि हमें आर्थिक प्रश्नों पर विचार करते समय नैतिकता एवं आर्थिकेतर कारकों का भी विचार करना चाहिए|24

दीनदयाल जी ने अपनी दूरदृष्टि से इस बात को भी भली प्रकार समझ लिया था कि हमारी अर्थव्यवस्था का उद्देश्य असीम भोग नहीं संयमित उपभोग ही होना चाहिए | अब यह स्पष्ट हो चुका है कि आज हम उपभोक्तावाद पर आधारित उपभोग की जिस शैली एवं तौर-तरीकों को अपनाते जा रहे हैं उसका पर्यावरण एवं सामजिक दोनों ही दृष्टियों से लम्बे समय तक टिक पाना संभव नहीं लगता| इतना ही नहीं यह सबके लिए धारणक्षम मानव विकास की संभावनाओं को ही कमजोर किये जा रही हैं| यह इस विश्वास को इंगित करता है कि सीमित-संयमित धारणक्षम व्यवहारक्षम उपयोगशैली एवं जीवनशैली अपनाकर ही धारणक्षम मंगलकारी विकास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है| इसके अलावा, दीनदयाल जी का एक और महत्त्वपूर्ण दिशा-संकेत यह भी है कि समाज को सुखी एवं संतुष्ट रखना हो तो ग्राहकाभिमुख वितरण व्यवस्था और पर्याप्त मात्रा में वितरणाभिमुख उत्पादन होना चाहिए|25

दीनदयाल जी ‘द्रव्य आस्तिकता’ के दोष से अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक योजनाओं को बचाएं रखने पर जोर देते थे| ‘द्रव्य आस्तिकता’ से आशय है केवल अधिक पैसा खर्च करने से अधिक प्रगति होती है, यह विश्वास और उसी दृष्टि से किया जाने वाला द्रव्य का मापतौल|26

इतना ही नहीं, केन्ज का यह विचार है कि मंदी व बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकारी निवेश, खर्च में वृद्धि व घाटे का बजट बनना चाहिए, दीनदयाल जी को यह कतई मान्य नहीं था | उनका कहना था कि हमे यह भी देखना होगा कि सरकारी निवेश व खर्च किन कामों पर हो रहा है| इस दृष्टि से साध्य-साधन विवेक का भी ध्यान रखना होगा| वे एक ऐसी अर्थरचना के पक्षधर थे जिसमे कार्य की मूल प्रेरणा अनियंत्रित प्रतियोगिता अथवा लाभ की वृत्ति न होकर ‘कर्तव्य सुख’ हो| व्यक्ति को दिया जाने वाला पारिश्रमिक उसके द्वारा किए गए श्रम का प्रतिदान नहीं वरन् उसके योगक्षेम की व्यवस्था मानी जाए| इसके लिए अर्थचक्र को समाजशास्त्र एवं धर्मशास्त्र (नीतिशास्त्र) के अनुकूल नियोजित करना आवश्यक है| कुल मिलाकर, वे उपभोक्तावाद, स्पर्धावाद, वर्ग संघर्ष पर आधारित अर्थरचना को ठीक नहीं मानते| उनके अनुसार मनुष्य कि प्राकृत भावनाओं का संस्कार करके उसमें प्रकृति की मर्यादा के प्रकाश में अधिकाधिक उत्पादन, सामान वितरण एवं संयमित उपभोग की प्रवृति पैदा करना ही आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक कार्य है| वे देश व समाज को अर्थ विकृति से हटाकर अर्थ संस्कृति की दिशा में ले जाना चाहते थे| आज पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति या तो मात्र अर्थपरायण बनकर रह गया है या फिर अपने निजी व्यक्तित्व को नष्ट कर वह एक नंबर बनता जा रहा है| दूसरी ओर साम्यवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति की अपनी रूचि, प्रकृति, प्रवृति, प्रेरणा व पहल को समाप्त कर उसे जेल के एक कैदी के समान बना दिया गया है| इस प्रकार दोनों ही व्यवस्थाओं में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को खोता जा रहा है| अत: हमें ऐसी अर्थरचना बनानी होगी जिसमें व्यक्ति को गरिमापूर्ण स्थान मिले और वह पुरुषार्थशील बनकर राष्ट्र के सार्वजनीय मंगल में अपनी पूर्णक्षमता के साथ योगदान कर सके| अन्त में मैं दीनदयाल जी की आकांक्षा को उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत करना चाहता हूँ, “विश्व का ज्ञान और आज तक की अपनी सम्पूर्ण परंपरा के आधार पर हम ऐसा भारत निर्माण करेंगे जो हमारे पूर्वजो के भारत से अधिक गौरवशाली होगा| जिसमें जन्मा मानव अपने व्यक्तित्व का विकास करता हुआ सम्पूर्ण मानव ही नहीं अपितु सृष्टि के साथ एकात्म का साक्षात्कार कर ‘नर से नारायण’ बनने में समर्थ हो सकेगा|”27

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