बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०१६

EKATMA ARTHCHINTAN

EKATMA ARTHCHINTAN


दीनदयाल जी का एकात्म अर्थचिन्तन

-    डॉ. बजरंगलाल गुप्ता


दीनदयाल जी वर्तमान तकनीकी एवं अकादमिक शब्दावली के संकीर्ण-सीमित अर्थों में अर्थशास्त्री तो नहीं थे, पर वे सचमुच अर्थवेत्ता थे, राष्ट्रोत्थान एवं समाज की सर्वांगीण प्रगति के आकांक्षी कर्मरत दृष्टा थे| उन्होंने आर्थिक परिदृश्य, सामाजिकआर्थिक समस्याओं एवं उनके समाधान के बारे में जो विचार प्रकट किये, उसे अर्थचिंतन कहना ही अधिक उपयुक्त होगा|

मूलभूत मान्यताएं

ऐसा लगता है कि दीनदयाल जी का सम्पूर्ण अर्थचिंतन दो मूलभूत मान्याताओं पर आधारित था| एक, वे समाज संसार के विभिन्न अवयवों-घटकों को अलग-थलग, पूर्णतया असम्बद्ध इकाइयों के रूप में स्वीकार नहीं करते थे| वे तो व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि एवं परमेष्ठी के बीच संबंधों की अखंड मंडलाकार रचना के आधार पर विभिन्न इकाइयों के बीच सावयवी, परस्परपूरकता, परस्परानुकूलता, एकात्मता एवं संवेदनशीलता के सम्बन्ध मानते हैं| इसी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था किभारतीय संस्कृति सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है| उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है|”1 इस प्रकार वे टुकड़ों-टुकड़ों में खंडित विचार प्रक्रिया को ठीक नहीं मानते| दूसरे शब्दों में दीनदयाल जी समग्र-समन्वित एकात्म विश्वदृष्टि की मान्यता के आधार पर ही अपनी चिन्तन प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते हैं | दीनदयाल जी की दूसरी महत्त्वपूर्ण मान्यता व्यक्ति के सम्बन्ध में है | उनके अनुसारपूंजीवादी अर्थशास्त्र मनुष्य को एक अर्थलोलुप प्राणी मानकर चलता है | उसके सभी निर्णय आर्थिक दृष्टिकोण से होते हैं | ...“वह अर्थोत्पादन की प्रेरणा से ही काम करता है | 2 दूसरी ओर मार्क्स और साम्यवादी व्यवस्था ने मनुष्य को मात्र रोटीमय बना दिया | इस प्रकार आधुनिक अर्थशास्त्रआर्थिक मनुष्य’ (Economic Man) की अवधारणा मानकर चलता है | दीनदयाल जी के अनुसार इस आर्थिक चिंतन और उस पर आधारित अर्थव्यवस्था का यह परिणाम हुआ कि हाड़-मांस का वास्तविक मानव हमारी दृष्टि से ओझल ही हो गया है|3 इसलिए उन्होंने कहा कि, मनुष्य मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर इन चारों का समुच्चय है| हम उसकों टुकड़ों में बाँटकर विचार नहीं करते |4 व्यक्ति के बारे में भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है|5 इस प्रकार समग्र-एकात्म विश्वदृष्टि एवं व्यक्ति की एकात्म-संकलित अवधारणा, इन दो मान्यताओं पर आधारित है दीनदयाल जी का अर्थचिंतन और इसलिए इसे एकात्म अर्थचिंतन कहा जा सकता है |

विकास का समग्र चिंतन


दीनदयाल जी कहा करते थे कि आज का पश्चिम-प्रेरित अर्थशास्त्र अर्थ-काम केन्द्रित अर्थचिंतन है| यह अधिकाधिक धनोत्पादन और अधिकाधिक उपभोग के एक वर्तुल चक्र में ही घूमता रहता है, अत: यह अधूरा एवं भोगवादी चिंतन है| उनका दृढ़ मत था कि जीवन के विभिन्न आदर्शों तथा देश-काल की विभिन्न परिस्थितियों के कारण हमारे आर्थिक विकास का मार्ग पश्चिम से भिन्न होना चाहिए| हम मार्शल और मार्क्स से बंधकर विचार नहीं कर सकते|6 हमें विकास एवं अर्थतन्त्र के एक ऐसे प्रारूप पर काम करना होगा जिसमें मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि, व आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति और उसके सर्वांगीण विकास का अवसर मिल सके | इस दृष्टि से हमारे मनीषियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना रखी है | हमें इस संकल्पना की आज की आवश्यकता एवं सन्दर्भ के अनुसार व्याख्या एवं क्रियान्वयन करना होगा | इसे थोड़ा विस्तार से समझाते हुए दीनदयाल जी ने कहा था किअर्थके अंतर्गत आज की परिभाषा के अनुसार राजनीति और अर्थनीति का समावेश होता है | ‘कामका सम्बन्ध मानव की विभिन्न कामनाओं की पूर्ति व तृप्ति से है | ‘धर्ममें उन सभी नियमों, व्यवस्थाओं, आचरण संहिताओं तथा मूलभूत सिद्धांतों का अंतर्भाव होता है जिनसे अर्थ और काम की सिद्धि हो | इस प्रकार धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है, किन्तु फिर भी तीनों अन्योन्याश्रित तथा परस्पर पूरक व परस्पर पोषक है |
इतना तो सब मानने लगे हैं कि व्यापार-व्यवसाय अथवा धनार्जन के किसी भी क्रियाकलाप को सुचारू रूप से चलाने के लिए ईमानदारी, संयम, सत्य आदि धर्म के गुणों का पालन लाभदायक रहता है| इसी बात को आगे बढ़ाते हुए दीनदयाल जी कहते हैं कि, अमेरिका वालों की दृष्टि में, ‘ईमानदारी सर्वश्रष्ठ व्यावसायिक नीति है|’ (Honesty is the best business policy)| यूरोप वालों के अनुसारईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है ‘ (Honesty is the best policy) किन्तु भारत की परम्परा एक
कदम आगे बढ़कर कहती है कि, ‘ईमानदारी नीति नहीं अपितु सिद्धांत है| (Honesty is not a policy but a priniciple)| यहीं भारत और ससार के अन्य देशों के चिंतन में अंतर आता है| हमने धर्म को उपयोगितावादी दृष्टिकोण के अनुसार धन कमाने के लिए मात्र साधन नहीं माना है, अपितु हमारे लिए वह एक आस्था व विश्वास है और हर परिस्थिति में अपनाने लायक आचरण-शैली है| मोक्ष को हमने परम पुरुषार्थ माना है, तो भी अकेले उसके सेवन से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता| वास्तव में तो हमने इन चारों पुरुषार्थों का भी संकलित विचार किया है| शेष तीन पुरुषार्थों को लोकसंग्रह के विचार से, निष्काम भाव से करने वाला व्यक्ति कर्मबंधन से छूटकर मोक्ष का अधिकारी होता है|7 इसी बात को इस रूप में कहा जा सकता है कि अर्थार्जन के समस्त क्रियाकलाप और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपभोग के कार्य धर्म की मर्यादा के अनुसार इस प्रकार चलाये जाने चाहिए जिससे कि मनुष्य मोक्ष की दिशा में अग्रेसर हो सके| इस प्रकार दीनदयाल जी के विचारों के अनुसार हमें एक ऐसी अर्थरचना एवं अर्थव्यवस्था को विकसित करना होगा जिसमें धर्म और अर्थ, सदाचार और समृद्धि दोनों साथ-साथ चल सके|  








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