बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०१६

EKTMA MANAV DARSHAN MUL SUTRA 1



एकात्म मानव दर्शन - मूलसूत्र व्यवहार (प्रारूप)

1 राष्ट्रीय जीवन दर्शन की आवश्यकता
स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद पिछले 60 वर्षों में वास्तविक र्थ में स्वतंत्रता का उपयोग करके पश्चिम से आयात की हुयी विकास विषयक सिध्दान्तो को हमने स्वीकारा तथा कम्युनिजम पूँजीवाद इन दोनों मिश्रण की हुयी विकासनीति को अमल मे लाया गया। इस समय पूँजीवादी राष्ट्रों द्वारा सम्मानित की गयी मुक्त बाजारनीति का अवलंबन किया जा रहा है।

परंतु इतने वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी अपना देश विकसित देशों की सूची में गिना नही जाता पश्चिमी विकास के नमूनों का अनुकरण करने वाले अविकसित देशों   सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सब मिलाकर सांस्कृतिक भोग आज भी अपने देश को भुगतन पड रह है सही स्वतंत्रता की अनुभूति हो ही नही रही अतएव परिस्थिति की जड तक पहुंचकर पश्चिमी प्रभाव आजके संकट की चिकित्सा करनी चाहिये। उसीके साथ साथ राष्ट्रीय जीवन दर्शन के युगानुकूल व्यवहार्य रूप की प्रभावी रचना करनी चाहिये तथा उस आधार पर नियोजित राष्ट्रीय दिशा मे क्रियान्वयन होना चाहिये।

2 सिध्दान्तन आवश्यक
राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य को करने के लिये अपने जीवन दर्शन के सिध्दान्तो का अधिष्ठान नितांत आवश्यक है। क्योंकि पुनर्निर्माण के कार्य में विविध सामाजिक क्षेत्रों की रचना इस राष्ट्रीय सांस्कृतिक सत्त्व उसपर आधारित जीवनदृष्टि के अनरूप ही होना आवश्यक है। ऐसे धिष्ठानरूप जीवनदृष्टि के अभाव में विकसित होने वाली समाजजीवन की कोई भी व्यवस्था, रचना . आत्मविसंगत अल्पजीवी हो सकत है
           
विभिन्न सामाजिक क्षेत्रो में पुनर्निर्माण का कार्य करनेवाले नागरिको ैध्दांति पाथेय समान होन चाहिये तथा उनके कार्य की दिशा एक होनी चाहिये। इस दृष्टि से भी राष्ट्रीय जीवन दर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का लक्ष्य नजर के सामने रखा तथा उस दृष्टि से पिछले 90 वर्ष के कार्यकाल में सामाजिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में परिवर्तन लाने का प्रयत्न कार्यकर्ताओने जारी रखा है। यह सार प्रयत्न विविध क्षेत्रों में होने पर भी साधारणत: एक ही दिशा मे ते रहनें आवश्यक है तथा उनका संकलित परिणाम अपने ध्येय के करीब पहुँचना यही होना चाहिये। यह सुयोग्य दिशावेध सांस्कृतिक त्त्वों के अधिष्ठानपर एक मूलभूत जीवन दृष्टि की सहायता से ही प्राप्त हो सकता है।

परिस्थितिवश वर्तमान मे निर्माण होने वाली राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं समर्थरूप से सामना हो सके तथा भारत को एक समर्थ संपन्न राष्ट्र के रूप में राष्ट्रमालिका मे स्थान मिले यह आशा स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं के मन मे है। अपने सांस्कृतिक तत्वो की चिरंतन दृष्टि सार्थकता मे विश्वास ही उनके मनकी इस प्रबल इच्छा को बल देने वाला है।

3 जीवन दृष्टि की कालानुरूप पुनर्रचना
जिस समय हम किसी एक समाज की जीवनदृष्टि का उल्लेख करते है, उस समय उस समाज के बहुसंख्यकों द्वारा स्वीकृत अनुसरित जीवनशैली के अर्थ मे मान्य होता है। यह विशिष्ट जीवनशैली अनेक शतको से अनेक प्रभावो की क्रिया प्रतिक्रिया द्वारा धीरे धीरे विकसित होत है और वह उस समाज के विचार भावविश्व मे समाहित होत जात है। अनायास ही सर्वग्राह्य प्रभाव सर्वसाधारण रूप से समाज मे परिलक्षित होता रहता है, लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि समाजका हर व्यक्ति उस जीवनशैली का पूर्णरूप मे पालन करता है। इसलिये जीवनदृष्टि की संकल्पना सर्व साधारण प्रभाव द्योतक है।

मूलभूत अनुभूतिजन्य सूत्रों द्वारा हिन्दओं के प्राचीन दार्शनिको ने त्त्व विचारो का जो जो सिध्दान्त प्रस्तुत किय, वह सब चिरंतन हिन्दू जीवनदृष्टि के रूप मे समझ जात है यह जीवनदृष्टि हिन्दू जीवन दृष्टि है क्योंकि भूमि माता मानने वाले प्राचीन हिन्दू समाज के दृष्टाओं द्वारा विकसित गय है।

उसी प्रकार यह चिरंतन इसलिये है कि उसका सारभूत त्त्व अखिल मानवजाति के लिये सर्वकाल के लिये उपयोगी पड सकता है ऐसी उनकी धारणा थी।

4 एकात्म मानव दर्शन की प्रस्तुति

इस चिरंतन जीवन दृष्टि को अपने अपने युग के अनुसार सुसंगत रूप देने का प्रयत्न, उस काल के समाजप्रमुखों त्त्वचिंतको ने किया है। परिस्थितिवश जो  नये आवाहन समाज के सामने उपस्थित हुये उनका सामना करने के लिये इस जीवनदृष्टि को सचेत रखने का प्रयत्न किया है। समयोचित इस संस्कृति में निर्माण हुयी कमजोरी को दूर करके युगानुकूल आवश्यक मूल्याशयो को उसमे समाहित करने का प्रयत्न किया। विगत अल्प कालमे नारायण गुरू, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, योगी अरविन्द महात्मा गांधी जैसे अनेक चिंतको ने अपने सांस्कृतिक त्त्वों का युगानुकूल रूप देने का प्रयत्न किया।

अपने जीवनदृष्टि संबंधी प्रसंगानुसार व्यक्त किय गय श्री गुरूजी के विचारसूत्रो को पं.दीनदयाल जीने अपने राष्ट्रीय जीवन दर्शन की कालसुसंगत पुनर्रचना एकात्म मानववाद मे समाहित किया। इसी से 'एकात्म मानवदर्शन' की रूपरेखा बनी। इस प्रकार 'एकात्म मानवदर्शन' यह सनातन धर्म, हिन्दू धर्म, हिन्दुत्व, आर्यधर्म, स्वदेशी जैसे नाम धारण करने वाला अपने जीवनदर्शन मे समाहित हुआ सारभूत अंश ही है।

'वाद' जैसे शब्द से सर्वसाधारणत: एक निश्चित तात्त्वि बंधन का निर्देश होता है। इसमें कार्यकारण भाव के साथ ही घटना किस प्रकार घटती है या घटनी चाहिये इन सभीकी रूपरेखा होती है। उसके बाहर जाने का विशेष स्थान नही रहता। दीन दयाल जी को यह मान्य नही था लेकिन उस समय 'वाद' शब्द के अधिक प्रचलित होने के कारण उसका प्रयोग किया। दर्शन तो साधारणत: सूत्रात्मक त्त्वज्ञान होता है तथा देश-काल के अनुसार उसमें र्भिर्तार्थ भरा जाता है।


(WRITER: NOT KNOWN)

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